भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
माधुर्य भाव से उपासना करने वाले बहुत से भावुकों के मत में तो कृष्णकृपा की प्राप्ति के लिये श्रीप्रिया जी की उपासना ही कर्तव्य है। उनका मत है कि श्रीराधिका जी स्वाधीनभर्तृका हैं, भगवान उनके अधीन हैं, वे नित्य निकुंज में निरन्तर श्रीप्रिया जी के सौन्दर्य समास्वादन के लिये उन्हें अपने माधुर्य रस का नैवेद्य समर्पण करते हैं। इस प्रकार भगवान से आराधित होने के कारण ही वे ‘श्रीराधा’ कहलाती हैं। अतः उनका आह्वान करने के लिये भगवान को वेणुनाद करने की आवश्यकता नहीं थी। वे तो उनकी सन्निधि में ही थीं और उनकी प्रसन्नता के लिये ही यह लीला भी की गयी थी। ऐसी अवस्था में यह प्रश्न होता है कि फिर भगवान के वेणुनाद का और क्या प्रयोजन था? यहाँ यही समझना चाहिये कि भगवान ने अन्य यूथेश्वरी और साधनसिद्धा व्रजांगनाओं को बुलाने के लिये ही वंशीध्वनि की थी। वे चिरकाल से भगवत्संग के लिये उत्सुक थीं और तरह-तरह के व्रत-उपवास भी कर रही थीं, अतः उन्हें उनकी उपासना का फल देने के लिये ही भगवान ने वंशीध्वनि की।’ इस तरह अखण्डमण्डल श्रीवृषभानुनन्दिनी के मुख के समान चन्द्रमा को तथा उसकी शीतल सुकोमल रश्मियों से रंजित मनोहर वन को देखकर श्रीव्रजांगनाओं का मन हरण करने वाले वेणुगीत पीयूष को प्रवाहित किया। उस प्रेमानन्द समुद्र को बढ़ाने वाले गीत को सुनकर उनका मन मोहित होकर कृष्ण की ओर आकर्षित हो उठा, मानो कृष्ण ने हठात् उनके मन को हर लिया। बस फिर क्या था, जैसे नदियाँ समुद्र की ओर दौड़ती हैं समस्त व्रजांगनाएँ संभ्रम से श्रीकृष्ण की ओर चल पड़ीं। मानो जब प्रेमानन्द में मन बह चला तब मन के परतन्त्र शरीर भी उसी वेग में बह चला। यह गीत पीयूष प्रवाहक इतर प्रवाहों की तरह अपने संसर्गी पदार्थों को गन्तव्य की ओर न ले जाकर उद्गम स्थान श्रीकृष्ण की ओर ही ले जाता है। किंवा जब श्रीकृष्ण के वेणुगीतरूप चौर ने व्रजांगनाओं के धैर्य, विवेक आदि रत्नों से भरपूर मनोमंजूषा को हर लिया तो वे व्याकुल होकर उसी के अन्वेषण के लिये दौड़ पड़ीं। कोई दोहन, कोई परिवेषण छोड़कर, कोई लेपन, मार्जन, अंजन, पति-शुश्रूषण छोड़कर उलटे-पलटे भूषण-वसन धारण कर श्रीकृष्ण के पास चल पड़ीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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