भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसमें किसी भी समय अनुकूलता-प्रतिकूलता का अभाव हो जाय, यह सर्वथा असम्भव है। अतः जब तक इसमें सत्यत्व बुद्धि रहेगी तब तक हृदय के तापों की शान्ति हो ही नहीं सकती। वस्तुतः अभिनिवेशपूर्वक निरर्थक एक ही वस्तु का बारम्बार अनुसन्धान करना ही पूरा रोग है। किन्तु जिस समय विवेकचन्द्र का उदय होता है, उस समय सारी अनुकलता-प्रतिकूलता बालू की भीत के समान ढह जाती है। वह विवेकचन्द्र क्या करता हुआ उदित हुआ?- ‘अरुणेन ब्रह्मात्मना विषयेण प्राच्याः प्राचीनायाः धियः मुखं सत्त्वात्मकं भागं विलिम्पन्’ अर्थात् अरुण यानी ब्रह्मरूप विषय से प्राग्भवा बुद्धि के सत्त्वात्मक भाग को विलेपित करता उदित हुआ। तात्पर्य यह है कि जिस समय विवेकरूप चन्द्र का प्रादुर्भाव होता है, उस समय बुद्धि पूर्ण परब्रह्मरूप रंग से रंग जाती है। यह नियम है कि बुद्धि अपने विषय से अनुरंजित हुआ करती है। विवेक होने पर एकमात्र शुद्ध परब्रह्म की ही सत्ता रह जाती है; इसलिये उस समय बुद्धि ब्रह्मराग से ही अनुरंजित हो जाती है। प्रेम यानी राग का आस्पद होने के कारण भी परमात्मा अरुण कहा जाता है। अथवा यों समझों कि ‘प्राच्याः अविवेकदशापन्नायाः बुद्धेः मुखं जाड्यात्मकं दुःखात्मकं वा भागम् अरुणेन ब्रह्मसाक्षात्कारजन्येन सुखेन विलिम्पन् तिरोहितं कुर्वन् उदगात्’ प्राची यानी अविवेक दशा को प्राप्त हुई बुद्धि के मुख-जाड्यात्मक या दुःखात्मक भाग को अरुण यानी ब्रह्मसाक्षात्कारजनित सुख से विलेपित-तिरोहित करता हुआ उदित हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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