भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस पर कोई-कोई महानुभाव कहा करते हैं कि अनुकूलों में भेद रहने पर भी भय नहीं होता, किन्तु अनुकूलता सदा बनी ही रहेगी, इसमें भी तो कोई प्रमाण नहीं है। आज अनुकूलता है तो कल प्रतिकूलता हो सकती है, अतः अभय अभेद में ही है। इसी से कहा है- अथ य उ एतस्मिन्नदृश्ये अनात्म्ये अनिरूक्ते अनिलयने अभयं प्रतिष्ठां विन्दते अथ सोऽभयंगतो भवति।’ अर्थात जो कोई इस अदृश्य, अरूप, अनिर्वाच्य और अनिकेत ब्रह्म में अभय स्थिति प्राप्त कर लेता है वह अभय पद को प्राप्त हो जाता है। यदि हम प्राकृत क्षुद्र पदार्थों को अपनी आत्मा या आत्मीयों से भिन्न समझते हैं तो वह हमें स्वार्थ से भ्रष्ट कर देता है तब यदि हम पूर्ण परब्रह्म परमात्मा को अपने सर्वान्तरतम परप्रेमास्पद प्रत्यगात्मा से भिन्न मानेंगे तो वह हमें हमारे परम स्वार्थ से पतित क्यों न कर देगा? इसी से विवेकी वेद, शास्त्र, धर्म, ईश्वर इन सभी को अपना परप्रेमास्पद बनाने के लिये अपने से अभिन्न समझता है। वह एक अणु को भी अपनी आत्मा से भिन्न नहीं समझता। इसलिये यह नास्तिकता नहीं, परम आस्तिकता है। विवेक से भगवतत्त्व के परातत्त्वज्ञान की निवृत्ति हो जाती है। विवेकी भगवान को कोई बाह्य वस्तु नहीं समझता, उसकी दृष्टि में तो जिसे अपनी आत्मा के लिये सारी वस्तुएँ प्रिय होती हैं, उसी का वास्तविक स्वरूप भगवान हो जाते हैं। इसलिये उसका तो भगवान के प्रति निरुपाधिक और निरतिशय प्रेम हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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