भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अथवा ‘उरुतया विस्तीर्णतया राजते शोभते इति उरुराजः’ क्योंकि पूर्णरूप से राजमान तत्त्व विवेक ही है। जो अन्तःकरण विवेकरहित है वह पूर्णतया अनर्थ शून्य नहीं हो सकता। सभी प्रकार के अनर्थों की निवृत्ति विवेक होने पर ही तो की जाती है; जैसा कि कहा है-
अर्थात ज्ञान में किस प्रकार विशेष फल है वह इसी से समझ लो कि लोग सर्प, कुशा और जलाशय आदि का ज्ञान होने पर ही उनसे बचते हैं, उनका पता न होने पर तो वे उनके शिकार हो ही जाते हैं। इसी प्रकार विवेक से ही मनुष्य की प्रवृत्ति भगवत्तत्त्व में होती है। यदि विवेक न हो तो कौन प्रेमास्पद है और कौन त्याज्य है-इसका ज्ञान ही कैसे हो? अतः जो हृदयारण्य विवेकचन्द्र की शीतल और सुकोमल किरणों से अनुरंजित नहीं हुआ उसमें भगवान का प्राकट्य होना आसम्भव है। इसलिये भगवत्साक्षात्कार के लिये अन्तःकरण में विवेकरूप चन्द्र का प्रादुर्भाव अवश्य होना चाहिये। जो लोग इस विवेकचन्द्र को भगवद्भक्ति का बाधक समझते हैं, उनके विषय में क्या कहा जाय? उनके सिद्धान्तानुसार यदि द्वैत स्थिति ही परमकल्याण का हेतु है तो वह तो कीटपतंग सभी को प्राप्त ही है। अतः वे सभी परमकल्याण के भागी होने चाहिये। वस्तुतः प्रेम का कारण तो अपने पर प्रेमास्पदत्व का ज्ञान ही है। यदि हमारी दृष्टि में अपने प्रेमास्पद से भिन्न अन्य पदार्थों की भी सत्ता रहेगी तो हमारा प्रेम उनमें भी बँटा रहेगा और यदि वे सबके सब अपने प्रेमास्पद में ही लीन हो जायेंगे तो हमारा सारा प्रेम सिमटकर एकमात्र उस अपने अराध्यदेव में ही पुंजीभूत हो जायगा। प्रेम का नाश तो होगा नहीं, क्योंकि वह आत्मस्वरूप है। अतः निर्विकल्पालम्बन विवेक सम्पन्न हुए बिना तो ठीक-ठीक भगवत्प्रेम हो ही नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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