भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
भगवान तो समस्वरूप हैं- ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म।’ वे केवल वरणमात्र से ही भेददृष्टि वाले से जान पड़ते हैं। जिसने पर प्रेमास्पदरूप से उनका वरण किया है उसी को को ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ इस नियम के अनुसार वे आत्मीयरूप से स्वीकार करते हैं। श्रीगोसाईं जी महाराज कहते हैं-
तात्पर्य यह है कि भगवान् के सम-विषम व्यवहार में भक्त का हृदय ही हेतु है। परम करुणामय श्रीभगवान् की परमभास्वती अचिन्त्य कृपा अपार है। किन्तु जिसने उसका प्राकट्य कर लिया है उसे ही उसकी उपलब्धि होती है। इसका उपाय यही है कि उस परम प्रेमास्पद तत्त्व को स्वकीय रूप से वरण करे, उसकी प्रार्थना करे और उसे आत्मसमर्पण करे। बस इसी से वह भगवत्कृपा प्रकट हो जायगी। इस प्रकार परमकरुण और कृपालु श्रीहरि हम जैसे कुत्सितों की मनोरथपूर्ति के लिये भी सब प्रकार कृपा करते हैं। अब एक दूसरी दृष्टि से इस श्लोक के अर्थ का विचार करते हैं। प्रथम श्लोक की व्याख्या में एक स्थान पर कहा गया था-शरदोत्फुल्लमल्लिका के समान आपात-रमणीय सुखों में ही आसक्त ‘ता रात्रीः’ अज्ञानरूप अन्धकार से व्याप्त उस प्राकृत प्रजा को देखकर भगवान् ने रमण करने की इच्छा की। जिस समय भगवान् ने अज्ञानियों के हृदयारण्य में रमण करने की इच्छा की उस समय उसे रमणार्ह बनाने के लिये उनके हृदयाकाश में वैदिक श्रौत-स्मार्त्त्त धर्मरूप चन्द्रमा का उदय हुआ, क्योंकि जब तक वर्णाश्रम धर्म का आचरण करके मन शुद्ध नहीं होगा तब तक वह भगवत्क्रीड़ा का क्षेत्र बनने योग्य नहीं हो सकता। हृदय की शुद्धि का प्रधान हेतु वैदिक श्रौत-स्मार्त्त्त कर्मों का आचरण ही है। जैसे चन्द्रोदय से वृन्दारण्य भगवत्क्रीड़ा के योग्य होता है उसी प्रकार वैदिक-स्मार्त्त्त कर्मों का अनुष्ठान करने से मनुष्य का हृदय भगवान की विहार भूमि बन सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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