भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ सन्देह हो सकता है कि पृथ्वी तो जड़ है, उससे ऐसा प्रश्न करना किस प्रकार सार्थक होगा? तो इस सम्बन्ध में मेघदूत के यक्ष का दृष्टान्त स्मरण रखना चाहिये। वह भी तो मेघद्वारा अपनी प्रियतमा के पास अपना सन्देश भेज रहा था। बात यह है कि जो विरही होते हैं उन्हें चेतनाचेतन का विवेक नहीं रहता। प्रिया की वियोगव्यथा से पीड़ित भगवान राम भी मानो विरहियों की दशा का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं-‘हे चन्द्र! तुम पहले श्रीजानकी जी का स्पर्श कर उनके अंग-संग से शीतल हुई किरणों द्वारा फिर हमारा स्पर्श करो।’ इसी प्रकार यहाँ भी पृथ्वी से प्रश्न हो सकता है। विरहिणी व्रजांगनाओं की दृष्टि में तो पृथ्वी भगवत्सम्बन्धिनी होने के कारण चेतन ही है। अतः वे पृथ्वी से पूछती हैं, ‘हे क्षिति! तुमने ऐसा कौन-सा तप किया है? यदि कहो कि हम तो जड़ हैं, हमारे में तुम्हें तप का क्या चिह्न दिखाई देता है? तो हमें तो मालूम होता है कि तुमने अवश्य ही कोई बड़ा तप किया है। इसी से तो तुम्हें भगवान के चरणस्पर्श का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इससे तुम्हारा आनन्दोद्रेक स्पष्ट प्रकट होता है, क्योंकि बिना आनन्दोद्रेक के रोमांच नहीं होता। अतः परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र के चरण-स्पर्शजनित उल्लास से ही तुम रोमांचित हो रही हो।’ यहाँ पृथ्वी की ओर से यह कहा जा सकता था कि पृथ्वी का यह तरुलतारूप रोमांच तो अनादि काल से है इसे तुम श्रीकृष्णचन्द्र के चरणस्पर्श से हुआ कैसे मानती हो? इस पर कहता है-‘यह तो निश्चय है कि इस प्रकार की रोमोद्गति भगवच्चरणों के स्पर्श से ही हो सकती है; चाहे यह श्रीकृष्णचन्द्र के चरणस्पर्श से हुई हो अथवा भगवान के उरुक्रम के पादविक्षेप के समय उनके पदस्पर्श से हुई हो या जिस समय भगवान ने वाराह अवतार लेकर तुम्हारा आलिंगन किया था उस समय उस आलिंगनजनित आनन्द्रोद्रेक से यह रोमांच हुआ हो। तुम्हें भगवच्चरणों का स्पर्श अवश्य हुआ है और तुम हमारे प्राणाधार श्रीनन्दनन्दन का पता भी अवश्य जानती हो; अतः हम पर दयादृष्टि करके हमें उनका पता बतला दो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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