भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस दृष्टि से श्रीरामभद्र समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा हैं। अतः जिसने उन्हें नहीं देखा और जिसे उन्होंने नहीं देखा वह निन्दनीय है ही। इसलिये इस निन्दा से छूटने के लिये उन अपने स्वरूपभूत श्रीरघुनाथी जी का साक्षात्कार करना ही चाहिये। किन्तु यदि राम आत्मस्वरूप हैं तो सर्वावभासक होने के कारण सर्वदृक् हैं ही। उनका न देखना बन ही नहीं सकता। फिर जब ऐसा नियम है कि- ‘तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।’ तो घटादि विषयों के भान से पूर्व भी श्रीराम का भान होना अनिवार्य है ही; क्योंकि जैसे प्रतिबिम्ब का ग्रहण दर्पण-ग्रहण के अनन्तर ही होता है उसी प्रकार चितिरूप दर्पण के ग्रहण के अनन्तर ही चैत्यरूप प्रतिबिम्ब का ग्रहण हाता है। अतः ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो घटादि को देखे और चैतन्यात्मक श्रीरामभद्र को न देखे। तो फिर यह दर्शन कैसा है? यहाँ रामभद्र का दर्शन उनके कृपाकोण से देखना है, तथा विशुद्ध भगवदाकाराकारित मनोवृत्ति पर अभिव्यक्त भगवत्स्वरूप का साक्षात्कार करना जीव का भगवद्दर्शन है। इसी प्रकार यहाँ भगवान का जो अनुग्रहोपेत दर्शन है वही व्रजांगनाओं की अभिलाषापूर्ति का हेतु होने के कारण दीर्घदर्शन है। यद्यपि भगवान का अनुग्रह भी समस्त जीवों पर समान ही है, तथापि उसकी विशेष अभिव्यक्ति तो भक्त की भावना पर ही अवलम्बित है। श्रुति कहती है-“यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्।” अर्थात यह आत्मा जिसको चाहता है उसी के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, उसी के प्रति यह अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति करता है। श्रीभगवान कहते हैं- “ये यथा मां प्रपद्यन्ते ताँँस्तथैव भजाम्यहम्।” अर्थात जो लोग जिस प्रकार मुझे प्राप्त होते हैं उसी प्रकार मैं भी उनकी कामना पूर्ण करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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