भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
नैयायिकों के मत में सुख और सुखज्ञान का कारण आत्ममनःसंयोग है। किन्तु सुख की उत्पत्ति भी आत्ममनःसंयोग से ही होती है। अतः एक आत्ममनःसंयोग तो सुख की उत्पत्ति के लिये मानना होगा और दूसरा सुखज्ञान के लिये। ये दोनों एक समय हो नहीं सकते। इसलिये जिस समय सुखज्ञान का हेतुभूत आत्मममनःसंयोग नष्ट हो जायगा और उसका नाश हो जाने से सुख भी नहीं रहेगा, क्योंकि असमवायीकारण का नाश होने पर कार्य का भी नाश हो जाता है, जैसे तन्तुसंयोग का नाश होने पर पट का भी नाश हो जाता है। इस प्रकार सुख के रहते हुए तो सुखज्ञान न हो सकेगा और सुखज्ञान के समय सुख न रहेगा। यद्यपि यहाँ नैयायिकों का कथन है कि असमवायीकारण का नाश होने पर उसके कार्यभूत द्रव्य का ही नाश होता है, गुण का नाश नहीं होता और सुख गुण है; इसलिये इसका भी नाश नहीं हो सकता, तथापि इस संकोच में कोई कारण नहीं दीख पड़ता। यहाँ हमें इतना ही विचार करना है कि जिस प्रकार जागृत में सुखज्ञान आत्मस्वरूप है उसी प्रकार स्वप्न में शब्दादिज्ञानरूप जो दृष्टि, श्रुति एवं मति आदि हैं वे भी आत्मस्वरूप दर्शन ही हैं। अतः यह दर्शन ही आत्मदर्शन है। अतः ‘दीर्घ पौरुषेयं चैतन्यात्मकं अबाध्यं दर्शनं यस्य असौ दीर्घदर्शनः’ अर्थात् जिसका दीर्घ यानी पौरुषेय चैतन्यात्मक अबाध्य दर्शन है उसे दीर्घदर्शन कहते हैं। ऐसे भगवान श्रीकृष्ण दीर्घदर्शन हैं उनका चैतन्यात्मक दर्शन अलुप्त है। अतः जिन-जिन गोपांगनाओं के अन्तःकरण में जितने प्रीति आदि भाव थे उन सभी के अलुप्तदृक् साक्षी श्रीभगवान उनकी अभिरुचि की पूर्ति के लिये विहार-स्थल में प्रकट हुए। अथवा ‘दीर्घ सर्वविषयं दर्शनं यस्य असौ दीर्घदर्शनः’ अर्थात् जिसका दर्शन (दृष्टि) दीर्घ-सर्ववस्तु-विषयक है उसे दीर्घदर्शन कहते हैं। ‘यः सर्वज्ञः सर्ववित्’ इत्यादि श्रुति के अनुसार भगवान दीर्घदर्शन हैं। अतः सामान्य और विशेष रूप से वात्सल्य-माधुर्यादि अनेकविध भावों वाली व्रजांगनाओं को देखकर केवल माधुर्यभाववती व्रजांगनाओं की अभिलाषा-पूर्ति के लिये भगवान प्रकट हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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