भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी प्रकार कोई-कोई आचार्य अन्तःकरण की वृत्ति का प्रधान प्रयोजन जीवचैतन्य के साथ विषयावच्छिन्न चैतन्य का ऐक्य कराना मानते हैं। उनका मत ऐसा है कि जो वस्तु जिस चैतन्य में अध्यस्त होती है वही उसका प्रकाशक होता है; अतः घटाद्यवच्छिन्न चैतन्य को अपने में अध्यस्त घटादि का ज्ञान हो सकता है। तथापि प्रमाता जो जीव है उसे उसका ज्ञान किस प्रकार हो? अतः इन्द्रियमार्ग से विषय तक गयी हुई अन्तःकरण की वृत्ति उस विषयावच्छिन्न चेतन के साथ जीव चेतन का अभेद कर देती है। उस समय वह विषयावच्छिन्न चेतन में अध्यस्त विषय अन्तःकरणावच्छिन्न चेतन यानी जीव चेतन में अध्यस्त कहा जा सकता है। अतः इस प्रकार अन्तःकरणावच्छिन्न चेतन के साथ विषय का आध्यासिक सम्बन्ध होने से उसके द्वारा उस विषय का स्फुरण हो जाता है। इससे सिद्ध यही हुआ कि वृत्तियों की आवश्यकता चाहे आवरणाभिभव के लिये मानें चाहे जीव के साथ विषय का सम्बन्ध कराने के लिये मानें और चाहे अन्तःकरणावच्छिन्न चेतन और विषयावच्छिन्न चेतन के अभेद के लिये मानें, सुख के प्रकाश के लिये वृत्तियों की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सुख तो अन्तःकरण के समान स्वच्छ ही है। घटादि तो अस्वच्छ थे, इसलिये उन्हें चैतन्य सम्बन्ध के लिये वृत्ति की आवश्यकता थी। किन्तु सुख तो स्वतः स्वच्छ है; इसलिये जीवचैतन्य के साथ उसके सम्बन्ध के लिये वृत्ति की आवश्यकता नहीं है। यहाँ अन्तःकरणावच्छिन्न चेतन के साथ सुखावच्छिन्न चेतन का अभेद सम्पादन के लिये भी वृत्ति की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सुख का आश्रय तो अन्तःकरण ही है अतः वहाँ आवरणभंग के लिये वृत्ति की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि आवरण वहाँ होता है जहाँ पदार्थ की सत्ता ज्ञान नहीं होती। सुख अज्ञातसत्ताक है ही नहीं। इसलिये आवरण न होने के कारण आवरणाभिभवात्मिका वृत्ति की भी आवश्यकता नहीं है। इसी से सुख को केवल साक्षीभास्य मानते हैं। यदि ऐसा न मानेंगे तो वृत्ति के प्रकाश के लिये भी वृत्ति माननी पड़ेगी। यदि वृत्ति के प्रकाश के लिये वृत्ति नहीं मानते तो सुख के प्रकाश के लिये ही क्यों मानते हो? यहाँ किन्हीं-किन्हीं का ऐसा मत है कि सुख का स्मरण होता है, इसलिये सुखाकाराकारिता वृत्ति माननी चाहिये, क्योंकि उसका नाश होने पर ही सुख का संस्कार होगा और संस्कार से ही स्मृति होगी। किन्तु विशेष विचार करने पर इसकी आवश्यकता प्रतीत न होगी। सुखज्ञान क्या है? साक्षी का जो सुख के साथ सम्बन्ध है वही सुखज्ञान है। सुख का नाश होने से साक्षीगत सुखसंश्लिष्टत्व का नाश हो जायगा। इस प्रकार सुख के नाश से ही उसका संस्कार बन जायगा और उसी से स्मृति भी बन जायगी। अतः सुखज्ञान के लिये वृत्ति की आवश्यकता नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज