भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वह क्या करता हुआ उदित हुआ? “शन्तमैः करैश्चर्षणीनां श्रीकृष्णरसास्वादनाय वृन्दारण्यं प्रति अभिसरणशीलानां व्रजांगनाजनानां शुचः तमआदिरूपान् प्रतिबन्धान् मृजन उद्दीपनविधया वा लोककुलमर्यादारूपान् प्रतिबन्धान् मृजन् उदगात्।” अर्थात वह अपनी सुखस्वरूप एवं सुखप्रद किरणों से, श्रीकृष्ण-रसास्वादन के लिये वृन्दारण्य की ओर जाने वाली व्रजांगनाओं के शोक अर्थात अन्धकारादिरूप प्रतिबन्धों का अथवा उद्दीपनरूप से उनके लोक एवं कुलमर्यादारूप प्रतिबन्धों का निराकरण करता हुआ उदित हुआ। इसके सिवा अपनी नित्यप्रिया श्रीवृषभानुदुलारी के समान अन्य गोपांगनाओं के भी विरहतापसन्तप्त पीले मुखों को प्रियतम के संगम की सम्भावना से होने वाले अनुरागरूप उदयकालीन अरुणिमा से अनुरंजित करता हुआ उदित हुआ। भगवान की परमाह्लादिनी शक्तिरूपा श्रीराधिका जी तो नित्य ही भगवत्-संश्लिष्टा हैं, अतः उन्हें यह वियोगजनित ताप नहीं है और इसी से उनके मुख में पीतता भी नहीं है, प्रत्युत नित्य ही दीप्तियुक्त अरुणिमा है। किन्तु अन्य व्रजांगनाओं को यह सौभाग्य उपासना के पश्चात प्राप्त होता है। अतः उपासना की परिपक्वता से पूर्व, जबकि पूर्वराग का भी प्रादुर्भाव नहीं होता, वे भगवद्विरह से व्यथित रहती हैं और उनका समस्त अंग पीला पड़ जाता है। इस समय इस चन्द्रमा ने उदित होकर प्रियतम के समागम का सन्देश सुनाकर उस पीतिमा को अरुणिमा में परिणत कर दिया। परम प्रेमास्पद परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र से तादात्म्य-प्राप्ति के लिये भला कौन उत्सुक न होगा? परन्तु अधिकांश उपासक तो उपासना का परिपाक होने के अनन्तर ही उन्हें प्राप्त कर पाते हैं। किन्तु श्रीराधिका जी का भगवान के साथ शाश्वत सम्प्रयोग है। जिस प्रकार सुधासमुद्र में मधुरिमा नित्य-निरन्तर और सर्वत्र है उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण में उनकी आह्लादिनी शक्ति श्रीवृषभानुनन्दिनी हैं। अतः श्रीकृष्ण और राधिका जी का नित्य संयोग है। उनके सिवा और किसी को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यद्यपि तत्त्वतः तो भगवान सद्घन, चिद्घन और आनन्दघन ही हैं। अतः उनमें अन्य वस्तु के संयोग का अवकाश तभी हो सकता है जब वह भगवद्रूप हो। विजातीय वस्तु का उसके साथ कभी योग नहीं हो सकता और वस्तुतः विजातीय कोई वस्तु है भी नहीं। विचार वानों ने तो जीव को भगवत्स्वरूप ही कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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