भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अब हम इस श्लोक के तात्पर्य का एक अन्य प्रकार से विचार करते हैं- “उडुराजः, उडुषु उडुसदृशर्तुषु राजत इति उडुराजः-वसन्तः। यदैव भगवान रन्तुं मनश्चक्रे तदैव उडुराजो-वसन्त उदगात्।” अर्थात जो उडुस्थानीय अन्य ऋतुओं में शोभायमान है वह वसन्त ही उडुराज है। जिस समय भगवान ने रमण की इच्छा की उसी समय वह वसन्तरूप उडुराज उदित हो गया। वह वसन्त ऋतु कैसा है? ‘दीर्घदर्शनः-दीर्घकाले दर्शनं यस्य।’ अर्थात वर्तमान जो शरद् ऋतु है उसकी अपेक्षा जिसका दर्शन दीर्घकाल में होना सम्भव है। ऐसा वसन्त ऋतु भी काल का अतिक्रमण करके उदित हुआ। उसी का विशेषण है ‘ककुभः-के स्वर्गे कौ पृथिव्यां भातीति ककुभः’ अर्थात जो क- स्वर्ग और कु-पृथ्वी में भाषित होता है। इससे वसन्तोपलक्षित होलिका में होने वाले उत्सवादि भी सूचित होते हैं। ‘प्रिय’ भी उसी का विशेषण है, क्योंकि सबके प्रेम का आस्पद होने के कारण वह सबका प्रिय भी है। वह वसन्तरूप ककुभ और प्रिय उडुराज उदित हुआ। क्या करता हुआ उदित हुआ? “प्रियसंगमाभावजनितविषादान् मृजन् शन्तमैः करैश्च स्वोद्दीपनविभावजनितेन अरुणे प्रियसंगमसम्भावनाजनितेनानुरागेण प्राच्या नित्यप्रियायाः श्रीवृषभानुनन्दिन्या इव चर्षणीनां श्रीकृष्णेन सह रन्तुं गमनशीलानामन्यासां व्रजांगनानां विरहाग्निना पीतं मुखं विलिम्पन्।” अर्थात वह प्रियसंगमाभाव के कारण उत्पन्न हुए विषाद को अपनी शान्त किरणों से (अथवा सुखस्वरूप एवं सुखप्रद किरणों से) निवृत्त करते हुए तथा अपने उद्दीपन विभावरूप चन्द्रमा से उत्पन्न हुए अरुण यानी प्रियतम के समागम की सम्भावना से प्रकट हुए अनुराग द्वारा प्राची-नित्यप्रिया श्रीवृषभानुसुता के समान, अन्य सब चर्षणीगण भगवान श्रीकृष्ण के साथ रमण करने के लिये अभिसरण करने वाली समस्त गोपांगनाओं के विरहाग्निजनित पीड़ा से पीले पड़े हुए मुखों का लेपन करते हुए उदित हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज