भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि पारमार्थिक अद्वैत बुद्धि रहते हुए भजन के लिये द्वैतबुद्धि रखी जाय तो ऐसी भक्ति तो सैकड़ों मुक्तियों से भी बढ़कर है। भाष्यकार भगवान श्रीशंकराचार्य जी की भक्ति भी ऐसी ही थी; इसी से वे कहते हैं-
अर्थात हे नाथ! यद्यपि आपका और मेरा भेद नहीं है तथापि मैं आपका ही हूँ आप मेरे नहीं हैं, क्योंकि तरंग ही समुद्र का होता है, समुद्र तरंग का कभी नहीं होता। इसी विषय में किसी भावुक का कथन है-
अर्थात प्रियतमा चाहे तो प्रणयविधि से प्रियतम के वक्षःस्थल पर विहार करे और चाहे उसके चरणयुगल की परिचर्या में लगी रहे-बात एक ही है। इसी प्रकार जिसे परमार्थबोध प्राप्त हो गया है वह चाहे तो निर्विकल्प समाधि में स्थित रहे और चाहे भगवान के भजन-पूजन में लगा रहे-कोई भेद नहीं है। जो लोग विचारशून्य हैं उन्हीं की दृष्टि में भगवान का आत्मत्वेन साक्षात्कार उनका अपमान है। यदि विचार करके देखा जाय तो इस प्रकार का अभेद तो प्रेमातिशय की रीति ही है। प्रेम का अतिरेक होने पर तो भेदभाव की तिलांजलि हो ही जाती है। जो अरसिक हैं, उत्कृष्ट प्रेमातिशय के रहस्य को जानने वाले नहीं है उनकी दृष्टि में प्रियतमा का प्रियतम के वक्षःस्थल में बिहार करना अयुक्त हो सकता है, किन्तु रसिकजन तो जानते हैं कि प्रेमातिरेक में ऐसा ही हुआ करता है। अतः अभेदरूप से स्वरूप साक्षात्कार हो जाने पर भी काल्पनिक भेद स्वीकार करके निष्कपट भाव से भक्ति हो ही सकती है। तत्त्वज्ञों के यहाँ ऐसी ही भक्तिका स्वीकार है। इस प्रकार यह भजनानन्द चन्द्र विषयी, मुमुक्षु और मुक्त सभी के लिये प्रिय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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