भक्ति सागर का एक अमूल्य रत्न 3

भक्ति सागर का एक अमूल्य रत्न - प्रभुप्रेमी प्रह्लाद

श्रीमती सरलाजी श्रीवास्तव


जब प्रह्लाद ने खम्भ में भी भगवान के होने की पुष्टि की तो स्वयं पर नियन्त्रण न रख पाने के कारण उस दम्भी दैत्य ने अपनी तलवार से खम्भ पर प्रहार कर दिया। उसके विखण्डित होते ही गम्भीर गर्जन हुई और नृसिंह रूप धारण कर श्री हरि प्रकट हो गये। उन्होंने हिरण्यकशिपु के शरीर को अपने तीक्ष्ण नखों से विदीर्ण कर डाला तथा स्वयं सिंहासन पर विराजमान हो गये। चारों ओर जय-जयकार एवं पुष्प वर्षा होने लगी, किंतु प्रभु का रौद्र रूप सबको भयभीत कर रहा था।

केवल भक्त ही भगवान के क्रोध को शान्त कर सकता है। बालक प्रह्लाद ने अत्यन्त प्रेम एवं श्रद्धा से नृसिंह भगवान की स्तुति की। श्री हरि ने प्रसन्न हो कर उनसे वरदान माँगने को कहा तो उन्होंने यही वर माँगा की मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज अंकुरित न हो। धन्य है प्रह्लाद जी का निष्काम भगवत्प्रेम! इतनी अल्पायु में ही उन्होंने ऐसी उच्च कोटि की प्रेमा भक्ति कर ली, जो तपस्यारत बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिये भी दुर्लभ है।

आधुनिक कलि काल में भी यह प्रेरणा प्रद चरित्र अति प्रासंगिक है। हिरण्यकशिपु बुराई एवं दुर्गुणों का प्रतीक है। आज के युग में स्वार्थ, अहंकार, ईर्ष्या आदि दुर्गुणों का ही बोल बाला है। उनको नियन्त्रित एवं कम करने का केवल एक ही उपाय है, प्रभु के नाम का स्मरण एवं प्रभु कृपा पर विश्वास। यदि हम प्रह्लाद बनकर भगवान के नाम का जप करेंगे तो परिणाम यह होगा कि जैसे नृसिंह भगवान ने खम्भ से प्रकट हो कर हिरण्यकशिपु का संहार किया, वैसे ही प्रभु हमारे जीवन में भी विशेष कृपा करेंगे-

राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल।।[1]

गोस्वामीजी प्रेरणा देते हैं कि राम-नाम की साधना के द्वारा हम समस्त समस्याओं का समाधान कर सकते हैं एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अखण्ड आनन्द का अनुभव कर सकते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रा.च.मा. 1।27

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