भई हों बावरी सुनके बांसुरी -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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वंशी-वादन लीला


राग कान्हरो





भई हों बावरी सुनके बांसुरी, हरि बिनु कछु न सुहाये माई ।। टेक ।।
श्रवन सुनत मेरी सुध बुध बिसरी, लगी रहत तामें मन की गांसु, री ।
नेम धरम कोन कीनी मुरलिया, कोन तिहारे पासु, री ।
मीरां के प्रभु बस कर लीने, सप्त सुरन ताननि की फांसु, री ।।169।।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हों = हूँ। गाँसुरी = गाँस, फँसाने के लिये फन्दा। ( देखो - ‘निरखिन देखहु अंग अंग अब चतुराई की गाँस’ - सूरदास )। कोन = कौन सा। सप्त सुरन = सातों स्वरों ( सप्त स्वर = षडज, ऋषभ, गांधार, मंध्यम, पंचम, धैवत और निषाद जिन्हें संक्षेप में सा, रे, ग, म, प, ध और नि भी कहते हैं )। नानीनकी = लयों के भिन्न भिन्न विस्तारों द्वारा उत्पन्न।

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