- वेद्यं सर्प परं ब्रह्य निद्रु:खमसुखं च यत्। [1]
सर्प! परम बह्म ही जानने योग्य है जो कि सुख और दु:ख से रहित है।
- यदा बुध्यति बोद्धव्यं लोकवृत्तं जुगुप्सते। [2]
जानने योग्य (ब्रह्म) को जान लेने पर लोकव्यवहार से ग्लानि होती है।
- ब्रह्म ब्रह्मविदां बलम्। [3]
ब्रह्मज्ञानियों का ब्रह्म ही बल है।
- सत्ये स्थितो यस्तु स वेद वेद्यम्। [4]
जो सत्य में स्थित है वह जानने योग्य ब्रह्म को जानता है।
- नैतद् ब्रह्य त्वरमाणेन लभ्यम्। [5]
यह ब्रह्म शीघ्रता करने से नहीं मिलता।
- सुसूक्ष्मदृष्टयो राजन् व्रजंति ब्रह्म सनातनम्। [6]
राजन्! सूक्ष्म दृष्टि वाले ज्ञानी सनातन ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं।
- अव्यक्तस्येह विज्ञाने नासि तुल्यं निदर्शनम्। [7]
परब्रह्म का ज्ञान कराने के लिये संसार में कोई उचित उदाहरण नहीं है।
- अंतश्चादिमतां दृष्टो न त्वादिर्ब्रह्मण: स्मृत:। [8]
जिनका आदि है उनका अंत भी है परंतु ब्रह्म का आदि नहीं हैं।
- येन तंत्रयतस्तंत्रं वृत्ति: स्यात् तत् तदाचरेत्। [9]
जिस कर्म या उपाय से वृत्ति ब्रह्म में स्थित हो उसी को करे।
- प्रत्याहरेण व शक्यमक्षरं ब्रह्म वेदितुम्। [10]
प्रत्याहार से भी अविनाशी ब्रह्म को जाना जा सकता है।
- विशेषमवेक्षेते विशेषेण विचक्षण:। [11]
कुशल मनुष्य विशेष कर के विशेष (परमात्मा) का ज्ञान प्राप्त करे।
- देहांत कश्चिदंवास्ते भावितात्मा निराश्रयम्। [12]
कोई पवित्र आत्मा ही आजीवन परमात्मा में स्थित रहता है।
- सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्। [13]
सभी पापों के छूटने पर मन शुद्ध होने से ऋजु सनातन ब्रह्म को पा लेगा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत180.22
- ↑ वनपर्व महाभारत212.8
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत39.69
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत43.52
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत44.2
- ↑ स्त्रीपर्व महाभारत7.29
- ↑ शांतिपर्व महाभारत205.18
- ↑ शांतिपर्व महाभारत206.18
- ↑ शांतिपर्व महाभारत215.21
- ↑ शांतिपर्व महाभारत216.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत217.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत217.25
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत149.130
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