विषय सूची
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 23
दुर्वासा बोले– ओ गदहे के समान आकार वाले निर्लज्ज नराधम! उठ! भक्तशिरोमणि बलि का पुत्र होकर भी तू इस तरह पशुवत आचरण कर रहा है। देवता, मनुष्य, दैत्य, गन्धर्व तथा राक्षस –ये सभी सदा अपनी जाति में लज्जा का अनुभव करते हैं। पशुओं के सिवा सभी मैथुन-कर्म में लज्जा करते हैं। विशेषतः गदहे की जाति ज्ञान तथा लज्जा से हीन होती है; अतः दानवश्रेष्ठ! अब तू गदहे की योनि में जा। तिलोत्तमे! तू भी उठ। पुंश्चली स्त्री तो निर्लज्ज होती ही है। दैत्य के प्रति तेरी ऐसी आसक्ति है तो अब तू दानव योनि में ही जन्म ग्रहण कर। ऐसा कहकर रोष से जलते हुए दुर्वासा मुनि वहाँ चुप हो गये। फिर वे दोनों लज्जित और भयभीत होकर उठे तथा मुनि की स्तुति करने लगे। साहसिक बोला– मुने! आप ब्रह्मा, विष्णु और साक्षात महेश्वर हैं। अग्नि और सूर्य हैं। आप संसार की सृष्टि, पालन तथा संहार करने में समर्थ हैं। भगवन! मेरे अपराध को क्षमा करें। कृपानिधे! कृपा करें। जो सदा मूढ़ों के अपराध को क्षमा करे, वही संत-महात्मा एवं ईश्वर है। यों कहकर वह दैत्यराज मुनि के आगे उच्चस्वर से फूट-फूटकर रोने लगा और दाँतों में तिनके दबाकर उनके चरणकमलों में गिर पड़ा। तिलोत्तमा बोली– हे नाथ! हे करुणासिन्धो! हे दीनबन्धो! मुझ पर कृपा कीजिये। विधाता की सृष्टि में सबसे अधिक मूढ़ स्त्रीजाति ही है। सामान्य स्त्री की अपेक्षा अधिक मतवाली एवं मूढ़ कुलटा होती है, जो सदा अत्यन्त कामातुर रहती है। प्रभो! कामुक प्राणी में लज्जा, भय और चेतना नहीं रह जाती है। नारद! ऐसा कहकर तिलोत्तमा रोती हुई दुर्वासा जी की शरण में गयी। भूतल पर विपत्ति में पड़े बिना भला किन्हें ज्ञान होता है? उन दोनों की व्याकुलता देखकर मुनि को दया आ गयी। उस समय उन मुनिवर ने उन्हें अभय देकर कहा। दुर्वासा बोले– दानव! तू विष्णुभक्त बलि का पुत्र है। उत्तम कुल में तेरा जन्म हुआ है। तू पैतृक परम्परा से विष्णुभक्त है। मैं तुझे निश्चितरूप से जानता हूँ। पिता का स्वभाव पुत्र में अवश्य रहता है। जैसे कालिय के सिर पर अंकित हुआ श्रीकृष्ण का चरणचिह्न उसके वंश में उत्पन्न हुए सभी सर्पों के मस्तक पर रहता है। वत्स! एक बार गदहे की योनि में जन्म लेकर तू निर्वाण (मोक्ष)– को प्राप्त हो जा। सत्पुरुषों द्वारा पहले जो चिरकाल तक श्रीकृष्ण की आराधना की गयी होती है, इसके पुण्य-प्रभाव का कभी लोप नहीं होता। अब तू शीघ्र ही व्रज के निकट वृन्दावन के ताल-वन में जा। वहाँ श्रीहरि के चक्र से प्राणों का परित्याग करके तू निश्चय ही मोक्ष प्राप्त कर लेगा। तिलोत्तमे! तू भारतवर्ष में बाणासुर की पुत्री होगी; फिर श्रीकृष्ण-पौत्र अनिरुद्ध का आलिंगन प्राप्त करके शुद्ध हो जायेगी। महामुने! यों कहकर दुर्वासा मुनि चुप हो गये। तत्पश्चात वे दोनों भी उन मुनिश्रेष्ठ को प्रणाम करके यथास्थान चले गये। इस प्रकार दैत्य साहसिक के गदर्भ-योनि में जन्म लेने का सारा वृत्तान्त मैंने कह सुनाया। तिलोत्तमा बाणासुर की पुत्री उषा होकर अनिरुद्ध की पत्नी हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |