ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 45
तुम मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी, राजाओं के भवनों में राजलक्ष्मी, तपस्वियों की तपस्या और ब्राह्मणों की गायत्री हो। तुम सप्तपुरुषों के लिये सत्त्वस्वरूप और दुष्टों के लिये कलह की अंकुर हो निर्गुण की शक्ति ज्योति सगुण की शक्ति तुम्हीं हो तुम सूर्य में प्रभा, अग्नि में दाहिक-शक्ति, जल में शीतलता और चन्द्रमा में शोभा हो। भूमि में गंध और आकाश में शब्द तुम्हारा ही रूप है। तुम भुख प्यास आदि तथा प्राणियों की समस्त शक्ति हो। जो संसार में सबकी उत्पत्ति की कारण साररूप, स्मृति, मेधा, बुद्धि, अथवा विद्वानों की ज्ञानशक्ति तुम्हीं हो। श्रीकृष्ण ने शिव जी को कृपापूर्वक सम्पूर्ण ज्ञान की प्रसविनी जो शुभ विद्या प्रदान की थी, वह तुम्हीं हो; उसी से शिव जी मृत्युंजय हुए हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली जो त्रिविध शक्तियाँ हैं, उनके रूप में तुम्हीं विद्यमान हो; अतः तुम्हें नमस्कार है। जब मधु-कैटभ के भय से डरकर ब्रह्मा काँप उठे थे, उस समय जिनकी स्तुति करके वे भयमुक्त हुए थे; उन देवी को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मधु-कैटभ के युद्ध में जगत के रक्षक ये भगवान विष्णु जिन परमेश्वरी का स्तवन करके शक्तिमान हुए थे; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। त्रिपुर के महायुद्ध में रथ सहित शिव जी के गिर जाने पर सभी देवताओं ने जिनकी स्तुति की थी; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनका स्तवन करके वृषरूपधारी विष्णु द्वारा उठाये गये स्वयं शम्भु ने त्रिपुर का संहार किया था; उन दुर्गा का मैं अभिवादन करता हूँ। जिनकी आज्ञा से निरन्तर वायु बहती है, सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं और अग्नि जलाती है; उन दुर्गा को मैं सिर झुकाता हूँ। जिनकी आज्ञा से काल सदा वेगपूर्वक चक्कर काटता रहता है और मृत्यु जीव-समुदाय में विचरती रहती है; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। जिनके आदेश से सृष्टिकर्ता सृष्टि की रचना करते हैं, पालनकर्ता रक्षा करते हैं और संहर्ता समय आने पर संहार करते हैं; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनके बिना स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, जो ज्योतिःस्वरूप एवं निर्गुण हैं, सृष्टि-रचना करने में समर्थ नहीं होते; उन देवी को मेरा नमस्कार है। जगज्जननी! रक्षा करो, रक्षा करो; मेरे अपराध को क्षमा कर दो। भला, कहीं बच्चे के अपराध करने से माता कुपित होती है। इतना कहकर परशुराम उन्हें प्रणाम करके रोने लगे। तब दुर्गा प्रसन्न हो गयीं और शीघ्र ही उन्हें अभय का वरदान देती हुई बोलीं– ‘हे वत्स! तुम अमर हो जाओ। बेटा! अब शान्ति धारण करो। शिव जी की कृपा से सदा सर्वत्र तुम्हारी विजय हो। सर्वान्तरात्मा भगवान श्रीहरि सदा तुम पर प्रसन्न रहें। श्रीकृष्ण में तथा कल्याणदाता गुरुदेव शिव में तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति बनी रहे; क्योंकि जिसकी इष्टदेव तथा गुरु में शाश्वती भक्ति होती है, उस पर यदि सभी देवता कुपित हो जाएँ तो भी उसे मार नहीं सकते। तुम तो श्रीकृष्ण के भक्त और शंकर के शिष्य हो तथा मुझ गुरुपत्नी की स्तुति कर रहे हो; इसलिये किसकी शक्ति है जो तुम्हें मार सके। अहो! जो अन्यान्य देवताओं के भक्त हैं अथवा उनकी भक्ति न करके निरंकुश ही हैं, परंतु श्रीकृष्ण के भक्त हैं तो उनका कहीं भी अमंगल नहीं होता। भार्गव! भला, जिन भाग्यवानों पर बलवान चन्द्रमा प्रसन्न हैं तो दुर्बल तारागण रुष्ट होकर उनका क्या बिगाड़ सकते हैं। सभा में महान आत्मबल से सम्पन्न सुखी नरेश जिस पर संतुष्ट है, उसका दुर्बल भृत्यवर्ग कुपित होकर क्या कर लेगा?’ यों कहकर पार्वती हर्षित हो परशुराम को शुभाशीर्वाद देकर अन्तःपुर में चली गयीं। तब तुरंत हरि-नाम का घोष गूँज उठा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |