ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 45
परशुराम ने कहा– प्राचीन काल की बात है; गोलोक में जब परिपूर्णतम श्रीकृष्ण सृष्टि-रचना के लिये उद्यत हुए, उस समय उनके शरीर से तुम्हारा प्राकट्य हुआ था। तुम्हारी कान्ति करोड़ों सूर्यों के समान थी। तुम वस्त्र और अलंकारों से विभूषित थीं। शरीर पर अग्नि में तपाकर शुद्ध की हुई साड़ी का परिधान था। नव तरुण अवस्था थी। ललाट पर सिंदूर की बेंदी शोभित हो रही थी। मालती की मालाओं से मण्डित गुँथी हुई सुन्दर चोटी थी। बड़ा ही मनोहर रूप था। मुख पर मन्द मुस्कान थी। अहो! तुम्हारी मूर्ति बड़ी सुन्दर थी, उसका वर्णन करना कठिन है। तुम मुमुक्षुओं को मोक्ष प्रदान करने वाली तथा स्वयं महाविष्णु की विधि हो। बाले! तुम सबको मोहित कर लेने वाली हो। तुम्हें देखकर श्रीकृष्ण उसी क्षण मोहित हो गये। तब तुम उनसे सम्भावित होकर सहसा मुस्कराती हुई भाग चलीं। इसी कारण सत्पुरुष तुम्हें ‘मूलप्रकृति’ ईश्वरी राधा कहते हैं। उस समय सहसा श्रीकृष्ण ने तुम्हें बुलाकर वीर्य का आधान किया। उससे एक महान डिम्ब उत्पन्न हुआ। उस डिम्ब से महाविराट की उत्पत्ति हुई, जिसके रोमकूपों में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं। फिर राधा के श्रृंगारक्रम से तुम्हारा निःश्वास प्रकट हुआ। वह निःश्वास महावायु हुआ और वही विश्व को धारण करने वाला विराट् कहलाया। तुम्हारे पसीने से विश्वगोलक पिघल गया। तब विश्व का निवासस्थान वह विराट जल की राशि हो गया। तब तुमने अपने को पाँच भागों में विभक्त करके पाँच मूर्ति धारण कर ली। उनमें परमात्मा श्रीकृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री मूर्ति है, उसे भविष्यवेत्ता लोग कृष्णप्राणाधिका ‘राधा’ कहते हैं। जो मूर्ति वेद-शास्त्रों की जननी तथा वेदाधिष्ठात्री है, उस शुद्धरूपा मूर्ति को मनीषीगण ‘सावित्री’ नाम से पुकारते हैं। जो शान्ति तथा शान्तरूपिणी ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मूर्ति है, उस सत्त्वस्वरूपिणी शुद्ध मूर्ति को संतलोग ‘लक्ष्मी’ नाम से अभिहित करते हैं। अहो! जो राग की अधिष्ठात्री देवी तथा सत्पुरुषों को पैदा करने वाली है, जिसकी मूर्ति शुक्ल वर्ण की है, उस शास्त्र की ज्ञाता मूर्ति को शास्त्रज्ञ ‘सरस्वती’ कहते हैं। जो मूर्ति बुद्धि, विद्या, समस्त शक्ति की अधिदेवता, सम्पूर्ण मंगलों की मंगलस्थान, सर्वमंगलरूपिणी और सम्पूर्ण मंगलों की कारण है, वही तुम इस समय शिव के भवन में विराजमान हो। तुम्हीं शिव के समीप शिवा (पार्वती), नारायण के निकट लक्ष्मी और ब्रह्मा की प्रिया वेद जननी सावित्री और सरस्वती हो। जो परिपूर्णतम एवं परमानन्दस्वरूप हैं, उन रासेश्वर श्रीकृष्ण की तुम परमानन्दरूपिणी राधा हो। देवांगनाएँ भी तुम्हारे कलांश की अंशकला से प्रादुर्भूत हुई हैं। सारी नारियाँ तुम्हारी विद्यास्वरूपा हैं और तुम सबकी कारणरूपा हो। अम्बिके! सूर्य की पत्नी छाया, चन्द्रमा की भार्या सर्वमोहिनी रोहिणी, इन्द्र की पत्नी शची, कामदेव की पत्नी ऐश्वर्यशालिनी रति, वरुण की पत्नी वरुणानी, वायु की प्राणप्रिया स्त्री, अग्नि की प्रिया स्वाहा, कुबेर की सुन्दरी भार्या, यम की पत्नी सुशीला, नैर्ऋत की जाया कैटभी, ईशान की पत्नी शशिकला, मनु की प्रिया शतरूपा, कर्दम की भार्या देवहूति, वसिष्ठ की पत्नी अरुन्धती, देवमाता अदिति, अगस्त्य मुनि की प्रिया लोपामुद्रा, गौतम की पत्नी अहल्या, सबकी आधाररूपा वसुन्धरा, गंगा, तुलसी तथा भूतल की सारी श्रेष्ठ सरिताएँ– ये सभी तथा इनके अतिरिक्त जो अन्य स्त्रियाँ हैं, वे सभी तुम्हारी कला से उत्पन्न हुई हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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