ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 40
गुरु ही ज्ञान देते हैं और वह ज्ञान हरि-भक्ति उत्पन्न करता है। इस प्रकार जो हरि-भक्ति प्रदान करने वाला है, उससे बढ़कर बन्धु दूसरा कौन है? अज्ञानरूपी अन्धकार से आच्छादित हुए मनुष्य को जहाँ से ज्ञानरूपी दीपक प्राप्त होता है, जिसे पाकर सब कुछ निर्मल दीखने लगता है, उससे बढ़कर बन्धु दूसरा कौन ह ? गुरु के दिये हुए मन्त्र का जप करने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और उस ज्ञान से सर्वज्ञता तथा सिद्धि मिलती है; अतः गुरु से बढ़कर बन्धु दूसरा कौन है? गुरु द्वारा दी गयी जिस विद्या के बल से मनुष्य सर्वत्र सुखपूर्वक विजयी होता है और जगत में पूज्य भी हो जाता है, उस गुरु से बढ़कर बन्धु दूसरा कौन है? हे पुत्र! श्रीकृष्ण तुम्हारे अभीष्टदेव हैं और स्वयं शंकर गुरु हैं; अतः तुम अभीष्टदेव से भी बढ़कर पूजनीय गुरु की शरण ग्रहण करो। जिनके आश्रय से तुमसे इक्कीस बार पृथ्वी को भूपालों से रहित कर दिया है और श्रीहरि की भक्ति प्राप्त की है; उन शिव की शरण में जाओ। जो मंगलस्वरूप, कल्याण की मूर्ति, कल्याणदाता, कल्याण के कारण, पार्वती के आराध्य और शान्तरूप हैं; अपने गुरुदेव उन शिव की शरण में जाओ। तुम्हारे इष्टदेव जो गोलोकनाथ भगवान श्रीकृष्ण हैं, वे ही अपने अंश से शिव का रूप धारण करके तुम्हारे गुरु हुए हैं, अतः उन्हीं की शरण ग्रहण करो। बेटा! समस्त प्राणियों में श्रीकृष्ण आत्मा हैं, शिव ज्ञान हैं, मैं मन हूँ और विष्णु की सारी शक्तियों से सम्पन्न प्रकृति प्राण है। जो ज्ञानदाता, ज्ञानस्वरूप, ज्ञान के कारण, सनातन मृत्यु को जीतने वाले तथा काल के भी काल हैं; उन गुरु की शरण में जाओ। जो ब्रह्मज्योतिःस्वरूप, भक्तों के लिये मूर्तिमान अनुग्रह, सर्वज्ञ, ऐश्वर्यशाली और सनातन हैं; उन गुरुदेव की शरण का आश्रय लो। प्रकृतिस्वरूपिणी पार्वती ने लाखों वर्षों तक तपस्या करके जिन परमेश्वर को अपने मनोनीत प्रियतम पति के रूप में प्राप्त किया है; उन गुरुदेव की शरण ग्रहण करो। नारद! इतना कहकर कमलजन्मा ब्रह्मा मुनियों के साथ चले गये। तब परशुराम ने भी कैलास जाने का विचार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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