ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 40
परशुराम जी बोले– राजेन्द्र! उठो और साहसपूर्वक युद्ध करो; क्योंकि मनुष्यों की जय-पराजय में काल ही कारण है। तुमने विधिपूर्वक शास्त्रों का अध्ययन किया है, दान दिया है, सारी पृथ्वी पर उत्तम रीति से शासन किया है, संग्राम में यशोवर्धक कार्य किया है, इस समय मुझे मूर्च्छित कर दिया है, सभी राजाओं को जीत लिया है, लीलापूर्वक रावण को काबू में कर लिया है और दत्तात्रेय द्वारा दिये गये त्रिशूल से मुझे पराजित कर दिया है; परंतु शंकर जी ने मुझे पुनः जीवित कर दिया है। परशुराम की बात सुनकर परम धर्मात्मा राजा कार्तवीर्य ने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और यथार्थ की बात कहना आरम्भ किया। राजा ने कहा– प्रभो! मैंने क्या अध्ययन किया, क्या दान दिया अथवा पृथ्वी का क्या उत्तम शासन किया? भूतल पर मेरे समान कितने भूपाल इस लोक से चले गये। मेरी बुद्धि, तेज, पराक्रम, विविध प्रकार की युद्ध-निपुणता, लक्ष्मी, ऐश्वर्य, ज्ञान, दानशक्ति, लौकिक गुण, आचार, विनय, विद्या, प्रतिष्ठा, परम तप– ये सभी मनोरमा के साथ ही नष्ट हो गये। समय आने पर इन्द्र मानव हो जाएँगे। समय आने पर ब्रह्मा भी मरेंगे। समय आने पर प्रकृति श्रीकृष्ण के शरीर में तिरोहित हो जायेगी। समय आने पर सभी देवता मर जाएँगे। और समय आने पर त्रिलोकी में स्थित समस्त चर-अचर प्राणी नष्ट हो जाते हैं। काल का अतिक्रमण करना दुष्कर है। परात्पर श्रीकृष्ण उस काल-के-काल हैं और स्वेच्छानुसार सृष्टि रचयिता के स्रष्टा, संहारकर्ता के संहारक और पालन करने वाले के पालक हैं। जो महान, स्थूल से स्थूलतम, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम, कृश, परमाणुपरक काल, कालभेदक काल है। सारे विश्व जिसके रोयें हैं; वह महाविराट् पुरुष तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश के बराबर है, जिससे क्षुद्र विराट् उत्पन्न हुआ है, जो सबका उत्कृष्ट कारण है। जो स्वयं स्रष्टा है और ब्रह्मा जिसके नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं। उस समय ब्रह्मा यत्नपूर्वक लाखों वर्षों तक भ्रमण करने पर भी जब नाभिकमल के दण्ड न पा सके, तब अपने स्थान पर स्थित हो गये। वहाँ उन्होंने वायु का आहार करके एक लाख वर्ष तक तप किया। तदनन्तर उन्हें गोलोक तथा पार्षदसहित श्रीकृष्ण के दर्शन हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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