ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 35
राजा को मार्ग में एक नग्न स्त्री मिली, जिसके बाल बिखरे थे, नाक कटी थी और वह रो रही थी। दूसरी विधवा भी मिली, जो काला वस्त्र पहने थी। आगे मुखदुष्टा, योनिदुष्टा, रोगिणी, कुट्टनी, पति-पुत्र से विहीन, जीविका चलाने वाला (सँपेरा), कुत्सित वस्त्र, अत्यन्त रूखा शरीर, नंगा, काषाय-वस्त्रधारी, चरबी बेचने वाला, कन्या-विक्रयी, चिता में जलता हुआ शव, बुझे हुए अंगारों वाली राख, सर्प से डँसा हुआ मनुष्य, साँप, गोह, खरगोश, विष, श्राद्ध के लिये पकाया हुआ पाक, पिण्ड, मोटक, तिल, देवमूर्तियों पर चढ़े हुए धन से जीवन-निर्वाह करने वाला ब्राह्मण, वृषवाह (बैल पर सवारी करने वाला अथवा बैल को जोतने वाला), शूद्र के श्राद्धान्न का भोजी, शूद्र का रसोइया, शूद्र का पुरोहित, गाँव का पुरोहित, कुश की पुत्तलिका, मुर्दा जलाने वाला, ख़ाली घड़ा, फूटा घड़ा, तेल, नमक, हड्डी, रुई, कछुआ, धूल, भूँकता हुआ कुत्ता, दाहिनी ओर भयंकर शब्द करता हुआ सियार, जटा, हजामत, कटा हुआ बाल, नख, मल, कलह, विलाप करता हुआ मनुष्य, अमंगलसूचक विलाप करने वाला तथा शोककारक रुदन करने वाला, झूठी गवाही देने वाला, चोर मनुष्य, हत्यारा, कुलटा का पति और पुत्र, कुलटा का अन्न खाने वाला, देवता, गुरु और ब्राह्मणों की वस्तुओं तथा धन का अपहरण करने वाला, दान देकर छीन लेने वाला, डाकू, हिंसक, चुगलखोर, दुष्ट, पिता-माता से विरक्त, ब्राह्मण और पीपल का विघातक, सत्य का हनन करने वाला, कृतघ्न, धरोहर हड़प लेने वाला मनुष्य, विप्रद्रोही, मित्रद्रोही, घायल, विश्वासघातक, गुरु, देवता और ब्राह्मण की निन्दा करने वाला, अपने अंगों को काटने वाला, जीव हिंसक, अपने अंग से हीन, निर्दयी, व्रत-उपवास से रहित, दीक्षाहीन, नपुंसक, कुष्ठरोगी, काना, बहरा, पुक्कस (जातिविशेष), कटे हुए लिंगवाला (नागा), मदिरा से मतवाला, मदिरा, पागल, खून उगलने वाला, भैंसा, गदहा, मूत्र, विष्ठा, कफ, मनुष्य की सूखी खोपड़ी, प्रचण्ड आँधी, रक्त की वृष्टि, बाजा, वृक्ष का गिराया जाना, भेड़िया, सूअर, गीध, बाज, कंक (एक मांसाहारी पक्षी), भालू, पाश, सूखी लकड़ी, कौआ, गन्धक, पहले-पहल दान लेने वाला ब्राह्मण (महापात्र), तन्त्र-मन्त्र से जीविका चलाने वाला, वैद्य, रत्न-पुरुष, औषध, भूसी, दूषित समाचार, मृतक की बातचीत, ब्राह्मण का दारुण शाप, दुर्गन्धयुक्त वायु और दुःशब्द आदि राजा के सामने आये। राजा का मन दूषित हो गया, प्राण निरन्तर क्षुब्ध रहने लगे, बायाँ अंग फड़कने लगा और शरीर में जड़ता आ गयी तथापि राजा को युद्ध में ही अपना मंगल दीख रहा था; अतः वह निःशंक हो सारी सेनाओं को साथ लेकर युद्धक्षेत्र में प्रविष्ट हुआ। वहाँ भृगुवंशी परशुराम को सामने देखकर वह तुरंत रथ से उतर पड़ा और भक्तिपूर्वक बड़े-बड़े राजाओं के साथ दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया। तब परशुराम ने ‘तुम स्वर्ग में जाओ’ ऐसा राजा को उसका अभीष्ट आशीर्वाद दिया। वह उनके मनोनुकूल ही हुआ; क्योंकि ब्राह्मण के आशीर्वचन दुर्लङ्घ्य होते हैं। तदनन्तर राजराजेश्वर कार्तवीर्य उसी क्षण राजाओं सहित परशुराम को नमस्कार करके तुरंत ही रथ पर, जो नाना प्रकार की युद्ध-सामग्री से सम्पन्न था, सवार हुआ। फिर उसने सहसा दुन्दुभि, मुरज आदि तरह-तरह के बाजे बजवाये और ब्राह्मणों को धन दान दिया। तब वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ परशुराम राजाओं की उस सभा में राजाधिराज कार्तवीर्य से हितकारक, सत्य एवं नीतियुक्त वचन बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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