ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 32
जो वेदों द्वारा अवर्णनीय हैं, अतः विद्वान जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं तथा जिनका गुणगान वाक-शक्ति के बाहर है; भला, उनका स्तवन करके कौन पार पा सकता है? जिनकी स्तुति करने में वेद समर्थ नहीं है तथा सरस्वती जड़-सी हो जाती हैं, मन-वाणी से परे उन भगवान का कौन विद्वान स्तवन कर सकता है? जो शुद्ध तेजःस्वरूप, भक्तों के लिये मूर्तिमान अनुग्रह और अत्यन्त सुन्दर हैं; उन श्याम-रूपधारी प्रभु को मेरा अभिवादन है। जिनके दो भुजाएँ हैं, मुख पर मुरली सुशोभित है, किशोर-अवस्था है, जो आनन्दपूर्वक मुस्करा रहे हैं, गोपांगनाएँ निरन्तर जिनकी ओर निहारा करती हैं; उन्हें मेरा प्रणाम स्वीकार हो। जो रत्ननिर्मित सिंहासन पर विराजमान हैं और राधा द्वारा दिये गये पान को चबा रहे हैं; उन मनोहर रूपधारी ईश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ। जो रत्नों के आभूषणों से भलीभाँति सुसज्जित हैं तथा जिन पर पार्षदप्रवर गोपकुमार श्वेत चँवर डुला रहे हैं; उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। जो रमणीय वृन्दावन के भीतर रासमण्डल के मध्य स्थित होकर रासक्रीड़ा के उल्लास से समुत्सुक हैं; उन रसिकेश्वर को मेरा प्रणाम है। जो शतश्रृंग की चोटियों पर, महाशैल पर, गोलोक में, रत्नपर्वत पर तथा विरजा नदी के रमणीय तट पर विहार करने वाले हैं; उन्हें मेरा नमस्कार है। जो परिपूर्णतम, शान्त, राधा के प्रियतम, मन को हरण करने वाले, सत्यरूप और ब्रह्मस्वरूप हैं, उन अविनाशी श्रीकृष्ण का मैं अभिवादन करता हूँ। जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र का तीनों काल पाठ करता है, वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का दाता हो जाता है। इस स्तोत्र की कृपा से श्रीहरि में उसकी भक्ति सुदृढ़ हो जाती है। उसे श्रीहरि की दासता मिल जाती है और वह इस लोक में निश्चय ही विष्णु-तुल्य जगत्पूज्य हो जाता है। वह शान्तिलाभ करके समस्त सिद्धों का ईश्वर हो जाता है और अन्त में श्रीहरि के परमपद को प्राप्त कर लेता है तथा भूतल पर अपने तेज और यश से सूर्य की तरह प्रकाशित होता है। वह जीवन्मुक्त, श्रीकृष्णभक्त, सदा नीरोग, गुणवान, विद्वान, पुत्रवान और धनी हो जाता है– इसमें तनिक भी संशय नहीं है। वह निश्चय ही छहों विषयों का जानकार, दसों बलों से सम्पन्न, मन के सदृश वेगशाली, सर्वज्ञ, सर्वस्व दान करने वाला और सम्पूर्ण सम्पदाओं का दाता हो जाता है तथा श्रीकृष्ण की कृपा से वह निरन्तर कल्पवृक्ष के समान बना रहता है। वत्स! इस प्रकार मैंने इस स्तोत्र का वर्णन कर दिया। अब तुम पुष्कर में जाओ और वहाँ मन्त्र सिद्ध करो। तत्पश्चात तुम्हें अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी। मुनिश्रेष्ठ! यों श्रीकृष्ण की कृपा से तथा मेरे आशीर्वाद से तुम सुखपूर्वक पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य करो[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महादेव उवाच–
परं ब्रह्म परं धाम परं ज्योतिः सनातनम्। निर्लिप्तं परमात्मानं नमामि सर्वकारणम्।।
स्थूलात् स्थूलतमं देवं सूक्ष्मात् सूक्ष्मतमं परम्। सर्वदृश्यमदृश्यं च स्वेच्छाचारं नमाम्यहम्।।
साकारं च निराकारं सगुणं निर्गुणं प्रभुम्। सर्वाधारं च सर्वं च स्वेच्छारूपं नमाम्यहम्।।
अतीवकमनीयं च रूपं निरुपमं विभुम्। करालरूपमत्यन्तं बिभ्रतं प्रणमाम्यहम्।।
कर्मणः कर्मरूपं तं साक्षिणं सर्वकर्मणाम्। फलं च फलदातारं सर्वरूपं नमाम्यहम्।।
स्रष्टा पाता च संहर्ता कलया मूर्तिभेदतः। नानामूर्तिः कलांशेन यः पुमांस्तं नमाम्यहम्।।
स्वयं प्रकृतिरूपश्च मायया च स्वयं पुमान्। तयोः परं स्वयं शश्वत् तं नमामि परात्परम्।।
स्त्रीपुंनपुंसकं रूपं यो बिभर्ति स्वमायया। स्वयं माया स्वयं मायी यो देवस्तं नमाम्यहम्।।
तारणं सर्वदुःखानां सर्वकारणकारणम्।। धारणं सर्वविश्वानां सर्वबीजं नमाम्यहम्।।
तेजस्विनां रविर्यो हि सर्वजातिषु ब्राह्मणः। नक्षत्राणां च यश्चन्द्रस्तं नमामि जगत्प्रभुम्।।
रुद्राणां वैष्णवानां च ज्ञानिनां यो हि शंकरः। नागानां यो हि शेषश्च तं नमामि जगत्पतिम्।।
प्रजापतीनां यो ब्रह्मा सिद्धानां कपिलः स्वयम्। सनत्कुमारो मुनिषु तं नमामि जगद्गुरुम्।।
देवानां यो हि विष्णुश्च देवीनां प्रकृतिः स्वयम्।
स्वायम्भुवो मनूनां यो मानवेषु च वैष्णवः। नारीणां शतरूपा च बहुरूपं नमाम्यहम्।।
ऋतूनां यो वसन्तश्च मासानां मार्गशीर्षकः। एकादशी तिथीनां च नमामि सर्वरूपिणम्।।
सागरः सरितां यश्च पर्वतानां हिमालयः। वसुन्धरा सहिष्णूनां तं सर्वं प्रणमाम्यहम्।।
पत्राणां तुलसीपत्रं दारुरूपेषु चन्दनम्। वृक्षाणां कल्पवृक्षो यस्तं नमामि जगत्पतिम्।।
पुष्पाणां पारिजातश्च शस्यानां धान्यमेव च। अमृतं भक्ष्यवस्तूनां नानारूपं नमाम्यहम्।।
ऐरावतो गजेनद्रणां वैनतेयश्च पक्षिणाम्। कामधेनुश्च धेनूनां सर्वरूपं नमाम्यहम्।।
तेजसानां सुवर्णं च धान्यानां यव एव च। यः केशरी पशूनां च वररूपं नमाम्यहम्।।
यक्षाणां च कुबेरो यो ग्रहाणां च बृहस्पतिः। दिक्पालानां महेन्द्रश्च तं नमामि परं वरम्।।
वेदसंघश्च शास्त्राणां पण्डितानां सरस्वती। अक्षराणामकारो यस्तं प्रधानं नमाम्यहम्।।
मन्त्राणां विष्णुमन्त्रश्च तीर्थानां जाह्नवी स्वयम्। इन्द्रियाणां मनो यो हि सर्वश्रेष्ठं नमाम्यहम्।।
सुदर्शनं च शस्त्राणां व्याधीनां वैष्णवो ज्वरः। तेजसां ब्रह्मतेजश्च वरेण्यं तं नमाम्यहम्।।
निषेकश्च बलवतां मनश्च शीघ्रगामिनाम्। कालः कलयतां यो हि तं नमामि विलक्षणम्।।
ज्ञानदाता गुरुणां च मातृरूपश्च बन्धुषु। मित्रेषु जन्मदाता यस्तं सारं प्रणमाम्यहम्।।
शिल्पीनां विश्वकर्मा यः कामदेवश्च रूपिणाम्। पतिव्रता च पत्नीनां नमस्यं तं नमाम्यहम्।।
प्रियेषु पुत्ररूपो यो नृपरूपो नरेषु च। शालग्रामश्च यन्त्राणां तं विशिष्टं नमाम्यहम्।।
धर्मः कल्याणबीजानां वेदानां सामवेदकः। धर्माणां सत्यरूपो यो विशिष्टं तं नमाम्यहम्।।
जले शैत्यस्वरूपो यो गन्धरूपश्च भूमिषु। शब्दरूपश्च गगने तं प्रणम्यं नमाम्यहम्।।
क्रतूनां राजसूयो यो गायत्री छन्दसां च यः। गन्धर्वाणां चित्ररथस्तं गरिष्ठं नमाम्यहम्।।
क्षीरस्वरूपो गव्यानां पवित्राणां च पावकः। पुण्यदानां च यः स्तोत्रं तं नमामि शुभप्रदम्।।
तृणानां कुशरूपो यो व्याधिरूपश्च वैरिणाम्। गुणानां शान्तरूपो यश्चित्ररूपं नमाम्यहम्।।
तेजोरूपो ज्ञानरूपः सर्वरूपश्च यो महान्। सर्वानिर्वचनीयं च तं नमामि स्वयं विभुम्।।
सर्वाधारेषु यो वायुर्यथात्मा नित्यरूपिणाम्। आकाशो व्यापकानां यो व्यापकं तं नमाम्यहम्।।
वेदानिर्वचनीयं यन्न स्तोतुं पण्डितः क्षमः। यदनिर्वचनीयं च को वा तत्स्तोतुमीश्वरः।।
वेदा न शक्ता यं स्तोतुं जडीभूता सरस्वती। तं च वाङ्मनसोः पारं को विद्वान् स्तोतुमीश्वरः।।
शुद्धतेजःस्वरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम्। अतीवकमनीयं च श्यामरूपं नमाम्यहम्।।
द्विभुजं मुरलीवक्त्रं किशोरं सस्मितं मुदा। शश्वद् गोपाङ्गनाभिश्च वीक्ष्यमाणं नमाम्यहम्।।
राधया दत्तताम्बूलं भुक्तवन्तं मनोहरम्। रत्नसिंहासनस्थं च तमीशं प्रणमाम्यहम्।।
रत्नभूषणभूषाढ्यं सेवितं श्वेतचामरैः। पार्षदप्रवरैर्गोपकुमाररैस्तं नमाम्यहम्।।
वृन्दावनान्तरे रम्ये रासोल्लाससमुत्सुकम्। रासमण्डलमध्यस्थं नमामि रसिकेश्वरम्।।
शतश्रृङ्गे महाशैले गोलोके रत्नपर्वते। विरजापुलिने रम्ये प्रणमामि विहारिणम्।।
परिपूर्णतमं शान्तं राधाकान्तं मनोहरम्। सत्यं ब्रह्मस्वरूपं च नित्यं कृष्णं नमाम्यहम्।।
श्रीकृष्णस्य स्तोत्रमिदं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः। धर्मार्थकाममोक्षाणां स दाता भारते भवेत्।।
हरिदास्यं हरौ भक्तिं लभेत् स्तोत्रप्रसादतः। इह लोके जगत्पूज्यो विष्णुतुल्यो भवेद् ध्रुवम्।।
सर्वसिद्धेश्वरः शान्तो प्यन्ते याति हरेः पदम्। तेजसा यशसा भाति यथा सूर्यो महीतले।।
जीवन्मुक्तः कृष्णभक्तः स भवेन्नान्न संशयः। अरोगी गुणवान् विद्वान् पुत्रवान् धनवान् सदा।।
षड्विज्ञो दशबलो मनोनायी भवेद् ध्रुवम्। सर्वज्ञः सर्वदश्चैव स दाता सर्वसम्पदाम्।।
कल्पवृक्षसमः शश्वद् भवेत् कृष्णप्रसादतः।।
इत्येवं कथितं स्तोत्रं त्वं वत्स गच्छ पुष्करम्। तत्र कृत्वा मन्त्रसिद्धिं पश्चात् प्राप्स्यसि वाञ्छितम्।।
त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां कुरु पृथ्वीं यथासुखम्। ममाशिषा मुनिश्रेष्ठ श्रीकृष्णस्य प्रसादतः।।-(गणपतिखण्ड 32। 27-76)
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