ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड : अध्याय 24
सुरभि ने कहा– मुने! जो निरन्तर अपनी वस्तुओं का शासक, पालक और दाता है, चाहे वह इन्द्र हो अथवा हलवाहा, वही अपनी वस्तु का दान कर सकता है। तपोधन! यदि आप स्वेच्छानुसार मुझे राजा को देंगे, तभी मैं स्वेच्छा से अथवा आपकी आज्ञा से उसके साथ जाऊँगी। यदि आप नहीं देंगे तो मैं आपके घर से नहीं जाऊँगी। आप मेरे द्वारा दी गयी सेना के सहारे राजा को भगा दीजिये। सर्वज्ञ! माया से विमुग्धचित्त होकर आप क्यों रो रहे हैं? अरे! ये संयोग-वियोग तो कालकृत हैं, आत्मकृत नहीं हैं। आप मेरे कौन हैं और मैं आपकी कौन हूँ– यह सम्बन्ध तो काल द्वारा नियोजित है। जब तक यह सम्बन्ध है तभी तक आप मेरे हैं। मन जब तक जिस वस्तु को केवल अपना मानता है और उस पर अपना अधिकार समझता है, तभी तक उसके वियोग से दुःख होता है। इतना कहकर कामधेनु ने सूर्य के सदृश कान्तिमान नाना प्रकार के शास्त्रास्त्र और सेनाएँ उत्पन्न कीं। उस कपिला के मुख आदि अंगों से करोड़ों-करोड़ों खड्गधारी, शूलधारी, धनुर्धारी, दण्ड, शक्ति और गदाधारी शूरवीर निकल आये। करोड़ों वीर राजकुमार और म्लेच्छ निकले। इस प्रकार कपिला ने मुनि को सेनाएँ देकर उन्हें निर्भय कर दिया और कहा –‘ये सेनाएँ युद्ध करेंगी; आप वहाँ मत जाइये।’ उस सामग्री से सम्पन्न होने के कारण मुनि को महान हर्ष प्राप्त हुआ। इधर राजा द्वारा भेजे गये भृत्य ने लौटकर राजा को सारा वृत्तान्त बतलाया। कपिला की सेना का वृत्तान्त और अपने पक्ष की पराजय सुनकर नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्य भयभीत हो गया। उसके मन में कारतरता छा गयी। तब उसने दूत भेजकर अपने देश से और सेनाएँ मँगवायीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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