ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड : अध्याय 22
वत्स! इस प्रकार मैंने तुमसे इस सर्वैश्वर्यप्रद नामक परमोत्कृष्ट कवच का वर्णन कर दिया। यह परम अद्भुत कवच सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाला है। जो मनुष्य विधिपूर्वक गुरु की अर्चना करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है, वह सबको जीतने वाला हो जाता है। महालक्ष्मी कभी उसके घर का त्याग नहीं करतीं; बल्कि प्रत्येक जन्म में छाया की भाँति सदा उसके साथ लगी रहती हैं। जो मन्दबुद्धि इस कवच को बिना जाने ही लक्ष्मी की भक्ति करता है, उसे एक करोड़ जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।[1] नारायण कहते हैं– महामुने! यों जगदीश्वर श्रीहरि ने प्रसन्न हो इन्द्र को यह कवच देने के पश्चात पुनः जगत की हित-कामना से कृपापूर्वक उन्हें ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं नमो महालक्ष्म्यै हरिप्रियायै स्वाहा’ यह षोडशाक्षर-मन्त्र भी प्रदान किया। फिर जो गोपनीय, परम दुर्लभ, सिद्धों और मुनिवरों द्वारा दुष्प्राप्य और निश्चितरूप से सिद्धप्रद है, वह सामवेदोक्त शुभ ध्यान भी बतलाया। (वह ध्यान इस प्रकार है)– जिनके शरीर की आभा श्वेत चम्पा के पुष्प के सदृश तथा कान्ति सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान है, जो अग्नि में तपाकर शुद्ध की हुई साड़ी को धारण किये हुए तथा रत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित हैं, जिनके प्रसन्न मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छायी हुई है, जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाली, स्वस्थ और अत्यन्त मनोहर हैं, सहस्रदस-कमल जिनका आसन है, जो परम शान्त तथा श्रीहरि की प्रियतमा पत्नी हैं, उन जगज्जननी का भजन करना चाहिये। देवेन्द्र! इस प्रकार के ध्यान से जब तुम मनोहारिणी लक्ष्मी का ध्यान करके भक्तिपूर्वक उन्हें षोडशोपचार समर्पित करोगे और आगे कहे जाने वाले स्तोत्र से उनकी स्तुति करके सिर झुकाओगे, तब उनसे वरदान पाकर तुम दुःख से मुक्त हो जाओगे। देवराज! महालक्ष्मी का वह सुखप्रद स्तोत्र, जो परम गोपनीय तथा त्रिलोकी मंप दुर्लभ है, बतलाता हूँ। सुनो। नारायण कहते हैं– देवि! जिनका स्तवन करने में बड़े-बड़े देवेश्वर समर्थ नहीं हैं, उन्हीं आपकी मैं स्तुति करना चाहता हूँ। आप बुद्धि के परे, सूक्ष्म, तेजोरूपा, सनातनी और अत्यन्त अनिर्वचनीया हैं। फिर आपका वर्णन कौन कर सकता है? जगदम्बिके! आप स्वेच्छामयी, निराकार, भक्तों के लिये मूर्तिमान अनुग्रहस्वरूप और मन-वाणी से परे हैं; तब मैं आपकी क्या स्तुति करूँ। आप चारों वेदों से परे, भवसागर को पार करने के लिये उपायस्वरूप, सम्पूर्ण अन्नों तथा सारी सम्पदाओं की अधिदेवी हैं और योगियों-योगों, ज्ञानियों-ज्ञानों, वेदों-वेदवेत्ताओं की जननी हैं; फिर मैं आपका क्या वर्णन कर सकता हूँ! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमधुसूदन उवाच–
गृहाण कवचं शक्र सर्वदुःखविनाशनम्। परमैश्वर्यजनकं सर्वशत्रुविमर्दनम्।।
ब्रह्मणे च पुरा दत्तं संसारे च जलप्लुते। यद् धृत्वा जगतां श्रेष्ठः सर्वैश्वर्ययुतो विधिः।।
बभूवुर्मनवः सर्वे सर्वैश्वर्ययुता यतः। सर्वैश्वर्यप्रदस्यास्य कवचस्य ऋषिर्विधिः।।
पङ्क्तिश्छन्दश्च सा देवी स्वयं पद्मालया सुर। सिद्धैश्वर्यजपेष्वेव विनियोगः प्रकीर्तितः।।
यद् धृत्वा कवचं लोकः सर्वत्र विजयी भवेत्।।
मस्तकं पातु मे पद्मा कण्ठं पातु हरिप्रिया। नासिकां पातु मे लक्ष्मीः कमला पातु लोचनम्।।
केशान् केशवकान्ता च कपालं कमलालया। जगत्प्रसूर्गण्डयुग्मं स्कन्धं सम्पत्प्रदा सदा।।
ऊँ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु। ऊँ श्रीं पद्मालयायै स्वाहा वक्षः सदावतु।।
पातु श्रीर्मम कङ्कालं बाहुयुग्मं च ते नमः।।
ऊँ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः पादौ पातु मे सततं चिरम्। ऊँ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा पातु नितम्बकम्।।
ऊँ श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा सर्वाङ्गं पातु मे सदा। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मां पातु सर्वतः।।
इति ते कथितं वत्स सर्वसम्पत्करं परम्। सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम्।।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु यः। कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ स सर्वविजयी भवेत्।।
महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति कदाचन। तस्य छायेव सततं सा च जन्मनि जन्मनि।।
इदं कवचमज्ञात्वा भजेल्लक्ष्मीः सुमन्दधीः। शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः।।-(गणपतिखण्ड 22। 5-17)
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