ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 16
यों कहकर ऐश्वर्यशाली कार्तिकेय ने उन कृत्तिकाओं को नमस्कार किया और फिर मन-ही-मन श्रीहरि का स्मरण करते हुए शंकर जी के पार्षदों के साथ यात्रा के लिये प्रस्थान किया। इसी बीज उन्होंने वहाँ एक उत्तम रथ को देखा। वह बहुमूल्य रत्नों का बना हुआ था, जिसे विश्वकर्मा ने भलीभाँति निर्माण किया था, उसमें स्थान-स्थान पर माणिक्य और हीरे जड़े गये थे, जिससे उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी। पारिजात-पुष्पों की मालावती से वह सुशोभित था। मणियों के दर्पण तथा श्वेत चँवर से वह अत्यन्त उद्भासित हो रहा था और चित्रकारीयुक्त रमणीय क्रीडा-भवनों से वह भलीभाँति सुसज्जित था। वह मनोहर तो था ही, उसका विस्तार भी बड़ा था। उसमें सौ पहिये लगे थे। उसका वेग मन के समान था और श्रेष्ठ पार्षद उसे घेरे हुए थे। उस रथ को पार्वती ने भेजा था। उस रथ पर कार्तिकेय को चढ़ते देखकर कृत्तिकाओं का हृदय दुःख से फटा जा रहा था। उनके केश खुल गये थे और वे शोक से व्याकुल थीं। सहसा चेतना प्राप्त होने पर अपने सामने स्कन्द को देख वे अत्यन्त शोक के कारण ठगी-सी रह गयीं; फिर वहीं भयवश उन्मत्त की भाँति कहने लगीं। कृत्तिकाओं ने कहा– हाय! अब हम लोग क्या करें, कहाँ चली जाएँ? बेटा! हमारे आश्रय तो तुम्हीं हो। इस समय तुम हम लोगों को छोड़कर कहाँ जा रहे हो? यह तुम्हारे लिये धर्मसंगत बात नहीं है। हम लोगों ने बड़े स्नेह से तुम्हें पाला-पोसा है, अतः तुम धर्मानुसार हमारे पुत्र हो। भला, उपयुक्त पुत्र मातृवर्गों का परित्याग कर दे– यह भी कोई धर्म है? यों कहकर सभी कृत्तिकाओं ने कार्तिकेय को छाती से चिपका लिया और पुत्र-वियोगजन्य दारुण दुःख के कारण वे पुनः मूर्च्छित हो गयीं। मुने! तत्पश्चात कुमार कार्तिकेय ने आध्यात्मिक वचनों द्वारा उन्हें समझाया और फिर उनके तथा पार्षदों के साथ वे उस रथ पर सवार हुए। मुने! यात्राकाल में उन्होंने अपने सामने साँड़, गजराज, घोड़ा, जलती हुई आग, भरा हुआ सुवर्ण-कलश, अनेक प्रकार के पके हुए फल, पति-पुत्र से युक्त स्त्री, प्रदीप, उत्तम मणि, मोती, पुष्पमाला, मछली और चन्दन– इन मांगलिक वस्तुओं को, वामभाग में श्रृगाल, नकुल, कुम्भ और शुभदायक शव को तथा दक्षिण भाग में राजहंस, मयूर, खंजन, शुक, कोकिल, कबूतर, शंखचिल्ल (सफेद चील), मांगलिक चक्रवाक, कृष्णसारमृग, सुरभी और चमरी गौ, श्वेत चँवर, सवत्सा धेनु और शुभ पताका को देखा। उस समय नाना प्रकार के बाजों की मंगलध्वनि सुनायी पड़ने लगी, हरि कीर्तन तथा घण्टा और शंख का शब्द होने लगा। इस प्रकार मंगल-शकुनों को देखते तथा सुनते हुए कार्तिकेय आनन्दपूर्वक उस मन के समान वेगशाली रथ के द्वारा क्षणमात्र में ही पिता के मन्दिर पर जा पहुँचे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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