ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 13
उसके घर में पुत्र-पौत्र को बढ़ाने वाली लक्ष्मी स्थिररूप से वास करती हैं। वह इस लोक में सम्पूर्ण ऐश्वर्यों का भागी होकर अन्त में विष्णु-पद को प्राप्त हो जाता है। तीर्थों, यज्ञों और सम्पूर्ण महादानों से जो फल मिलता है, वह उसे श्रीगणेश की कृपा से प्राप्त हो जाता है– यह ध्रुव सत्य है। नारदजी ने कहा– प्रभो! गणेश के स्तोत्र तथा उनके मनोहर पूजन को तो मैंने सुन लिया, अब मुझे जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले कवच के सुनने की इच्छा है। श्रीनारायण ने कहा– नारद! उस देवसभा के मध्य जब गणेश की पूजा समाप्त हुई, तब शनैश्वर ने सबके तारक जगद्गुरु विष्णु से कहा। शनैश्चर बोले– वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन! सम्पूर्ण दुःखों के विनाश और दुःख की पूर्णतया शान्ति के लिये विघ्नहन्ता गणेश के कवच का वर्णन कीजिये। प्रभो! हमारा मायाशक्ति के साथ विवाद हो गया है। अतः उस विघ्न के प्रशमन के लिये मैं उस कवच को धारण करूँगा। तदनन्तर भगवान विष्णु ने कवच की गोपनीयता और महिमा बतलाते हुए कहा– सूर्यनन्दन! दस लाख जप करने से कवच सिद्ध हो जाता है। जो मनुष्य कवच सिद्ध कर लेता है, वह मृत्यु को जीतने में समर्थ हो जाता है। सिद्ध-कवच वाला मनुष्य उसके ग्रहणमात्र से भूतल पर वाग्मी, चिरजीवी, सर्वत्र विजयी और पूज्य हो जाता है। इस माला मन्त्र को तथा इस पुण्यकवच को धारण करने वाले मनुष्यों के सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, डाकिनी, योगिनी, बेताल आदि, बालग्रह, ग्रह तथा क्षेत्रपाल आदि कवच के शब्दमात्र के श्रवण से भयभीत होकर भाग खड़े होते हैं। जैसे गरुड़ के निकट सर्प नहीं जाते, उसी तरह कवचधारी पुरुषों के संनिकट आधि (मानसिक रोग), व्याधि (शारीरिक रोग) और भयदायक शोक नहीं फकटते। इसे अपने सरल स्वभाव वाले गुरु भक्त शिष्य को ही बतलाना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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