ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 7
आप जीव, साक्षी के भोक्ता और अपने आत्मा के प्रतिबिम्ब हैं। आप ही कर्म और कर्मबीज हैं तथा कर्मों के फलदाता भी आप ही हैं। योगीलोग आपके निराकार तेज का ध्यान करते हैं तथा कोई-कोई आपके चतुर्भुज, शान्त, लक्ष्मीकान्त मनोहर रूप में ध्यान लगाते हैं। नाथ! जो वैष्णव भक्त हैं, वे आपके उस तेजस्वी, साकार, कमनीय, मनोहर, शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी, पीताम्बर से सुशोभित, रूप का ध्यान करते हैं और आपके भक्तगण परमोत्कृष्ट, कमनीय, दो भुजावाले, सुन्दर, किशोर-अवस्था वाले, श्यामसुन्दर, शान्त, गोपीनाथ तथा रत्नाभरणों से विभूषित रूप का निरन्तर हर्षपूर्वक सेवन करते हैं। योगी लोग भी जिस रूप का ध्यान करते हैं, वह भी उस तेजस्वी रूप के अतिरिक्त और क्या है? देव! प्राचीनकाल में जब असुरों का वध करने के लिये ब्रह्मा जी ने मेरा स्तवन किया, तब मैं आपके उस तेज को धारण करने वाले देवताओं के तेज से प्रकट हुई। विभो! मैं अविनाशिनी तथा तेजःस्वरूपा हूँ। उस समय मैं शरीर धारण करके रमणीय रमणीरूप बनाकर वहाँ उपस्थित हुई। तत्पश्चात आपकी मायास्वरूपा मैंने उन असुरों को माया द्वारा मोहित कर लिया और फिर उन सबको मारकर मैं शैलराज हिमालय पर चली गयी। तदनन्तर तारकाक्ष द्वारा पीड़ित हुए देवताओं ने जब मेरी सम्यक प्रकार से स्तुति की, तब मैं उस जन्म में दक्ष-पत्नी के गर्भ से उत्पन्न होकर शिव जी की भार्या हुई और दक्ष के यज्ञ में शिव जी की निन्दा होने के कारण मैंने उस शरीर का परित्याग कर दिया। फिर मैंने ही शैलराज के कर्मों के परिणामस्वरूप हिमालय की पत्नी के गर्भ से जन्म धारण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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