ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 7
मुने! उस देवसभा में यों कहकर ब्रह्मा के पुत्र तेजस्वी सनत्कुमार ने शंकर जी को अपने संनिकट बैठा लिया। इस प्रकार कुमार द्वारा शंकर जी को ग्रहण किये जाते देखकर पार्वती के कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये। वे शरीर छोड़ देने के लिये उद्यत हो गयीं। उस समय वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि यह कैसी कठिन बात हुई कि न तो अभीष्ट देव का दर्शन मिला और न व्रत का फल ही प्राप्त हुआ। इसी बीच पार्वती सहित देवताओं ने आकाश में एक परमोत्कृष्ट तेजसमूह देखा। उसकी प्रभा करोड़ों सूर्यों की प्रभा से उत्कृष्ट थी, वह दसों दिशाओं को प्रज्वलित कर रहा था और सम्पूर्ण देवताओं से युक्त कैलास पर्वत को तथा सबको आच्छादित कर रहा था। उसकी मण्डलाकृति बड़ी विस्तृत थी। भगवान के उस तेज को देखकर देवता लोग क्रमशः उनकी स्तुति करने लगे। विष्णु ने कहा– भगवन! यह जो महाविराट है, जिसके रोमछिद्रों में सभी ब्रह्माण्ड वर्तमान हैं, वह जब आपका सोलहवाँ अंश है, तब हम लोगों की क्या गणना है? ब्रह्मा ने कहा– परमेश्वर! जो वेदों के उपयुक्त दृश्य है, उसका प्रत्यक्ष दर्शन करने, स्तवन करने तथा वर्णन करने में मैं समर्थ हूँ; परंतु जो वेदों से परे है, उसकी मैं क्या स्तुति करूँ। श्रीमहादेव जी ने कहा– भगवन! जो सबके लिये अनिर्वचनीय, स्वेच्छामय, व्यापक और ज्ञान से परे हैं, उन आपका मैं ज्ञान का अधिष्ठातृ देवता होकर किस प्रकार स्तवन करूँ। धर्म ने कहा– जो अदृश्य होते हुए भी अवतार के समय सभी प्राणियों के लिये दृश्य हो जाते हैं, उन भक्तों के मूर्तिमान अनुग्रहस्वरूप तेजोरूप की मैं कैसे स्तुति करूँ? देवताओं ने कहा– देवेश्वर! भला जिनका गुणगान करने में वेद समर्थ नहीं हैं तथा सरस्वती की शक्ति कुण्ठित हो जाती है, उन आपका स्तवन करने के लिये हम लोग कैसे समर्थ हो सकते हैं; क्योंकि हम तो आपके कलांश हैं। मुनियों ने कहा– देव! वेदों को पढ़कर विद्वान कहलाने वाले हम लोग वेदों के कारणस्वरूप आपकी स्तुति कैसे कर सकते हैं? आप मन-वाणी के परे हैं; आपका स्तवन सरस्वती भी नहीं कर सकतीं। सरस्वती ने कहा– अहो! यद्यपि वेदवादी लोग मुझे वाणी की अधिष्ठातृदेवी कहते हैं, तथापि आपकी स्तुति करने के लिये मुझमें कुछ भी शक्ति नहीं है; क्योंकि आप वाणी और मन के अगोचर हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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