ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 35-37
उन्हें देखकर देहधारी जीव प्रणाम करता है और अत्यन्त भयभीत होकर खड़ा हो जाता है। सूर्यनन्दन यम चित्रगुप्त के साथ विचार करके जिनके लिये जो उचित होता है, वैसा ही शुभ या अशुभ फल प्रदान करते हैं। इस प्रकार उन जीवों को आवागमन के चक्कर से कभी छुटकारा नहीं मिलता। श्रीकृष्ण-चरणारविन्दों का सेवन ही जीव को उससे छुटकारा दिला सकता है।
देवराज! ये सब बातें मैंने आनुषङ्गिकरूप से तुम्हें बतायी हैं, अब मनोवाञ्छित वर माँगो। वत्स! मैं तुम्हें सब कुछ दूँगा। मेरे लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। महेन्द्र ने कहा– याचकों के लिये कल्पवृक्षस्वरूप मुनिश्रेष्ठ! मेरा इन्द्रत्व तो चला ही गया। अब ऐश्वर्य का क्या प्रयोजन है? आप मुझे परमपद प्रदान कीजिये। महेन्द्र की यह बात सुनकर मुनिवर दुर्वासा हँसे और वेदोक्त सारतत्त्व स्वरूप सत्य वचन बोले। मुनि ने कहा– महेन्द्र! विषयी पुरुषों के लिये परमपद अत्यन्त दुर्लभ है। तुम-जैसे लोगों को तो प्राकृत प्रलय-काल में भी मुक्ति नहीं मिल सकती। सृष्टिकाल में जीवों का आविर्भाव तथा प्रलयकाल में तिरोभावमात्र होता है। ठीक उसी तरह, जैसे प्रातःकाल प्राणियों का जागरण और रात्रिकाल में शयन हुआ करता है। जैसे काल-चक्र भ्रमण करता रहता है, उसी प्रकार विषयी जीव भी ईश्वर की इच्छा से गाड़ी के पहिये की तरह सदा ही आवागमन का चक्कर काटते रहते हैं। साठ विपलों का एक पल, साठ पलों का एक दण्ड, दो दण्डों का एक मुहूर्त, तीस मुहूर्तों का एक दिन-रात, पंद्रह दिन-रातों का एक पक्ष, शुक्ल और कृष्ण नामक दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक वर्ष तैंतालीस लाख बीस हजार मानव वर्षों के चार युग तथा मनुष्यों के पचीस हजार पाँच सौ साठ चतुर्युगों की एक इन्द्र की आयु होती है। यही एक मनु की भी आयु कही गयी है। दस लाख आठ हजार इन्द्रों का पतन हो जाने पर ब्रह्मा जी की आयु पूरी होती है। तभी ‘प्राकृतिक लय’ होता है। वत्स! प्राकृतिक प्रलय के समय परमात्मा श्रीकृष्ण की पलकें गिरती हैं। जब फिर उनकी पलकें उठती या आँख खुलती है, तब पुनः नयी सृष्टि का आरम्भ होता है। श्रुति में ब्रह्मा की सृष्टि और प्रलयों को असंख्य बताया गया है। जैसे पृथ्वी के धूलिकणों की गणना नहीं हो सकती, उसी तरह सृष्टि और प्रलयों की भी कोई गिनती नहीं है। यह चन्द्रशेखर शिव का कथन है। उपर्युक्त इन्द्रों का मोक्ष नहीं होता। अतः देवराज! तुम कोई दूसरा वर माँगो, जो सृष्टिसूत्र के अनुरूप हो। मुने! मुनीश्वर दुर्वासा की यह बात सुनकर देवराज को बड़ा विस्मय हुआ। तब उन्होंने वहाँ अपने पूर्व-ऐश्वर्य का ही वरण किया। ‘तुम अपने पूर्व ऐश्वर्य को शीघ्र ही प्राप्त कर लोगे’– ऐसा कहकर मुनि दुर्वासा अपने घर को चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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