ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 29-31
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, एकादशी, शिवरात्रि और रविवार व्रत- ये अत्यन्त पुण्य प्रदान करने वाले हैं। जो ये परम पवित्र पाँच व्रत नहीं करते, वे चाण्डाल से भी अधिक नीच मानव ब्रह्महत्या के भागी होते हैं। जो भारतवासी मानव अम्बुवाची योग में अर्थात आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण में पृथ्वी खोदते तथा जल में मल-मूत्रादि करते हैं, उन्हें ब्रह्महत्या लगती है। जो समर्थ होकर भी गुरु, माता, भाई, साध्वी स्त्री, पुत्र-पुत्री तथा अनाथों का भरण-पोषण नहीं करता है, वह ब्रह्महत्या का अधिकारी होता है। जो भगवान श्रीहरि की भक्ति से वंचित है, उसे ब्रह्महत्या लगती है। निरन्तर भगवान श्रीहरि को भोग लगाकर भोजन नहीं करने वाला और भगवान विष्णु तथा पुण्यमय पार्थिवेश्वर की उपासना से विमुख रहने वाला ब्रह्महत्यारा कहा जाता है।[1] कोई व्यक्ति गौ को मार रहा हो, उसे देखकर जो निवारण नहीं करता तथा जो गौ और ब्राह्मण के बीच से होकर निकलता है, वह गोहत्या का अधिकारी होता है। जो मूर्ख डंडों से गौ को पीटता है, बैल पर आरूढ़ होता है, उसे प्रतिदिन गोवध का पाप लगता है। जो पैर से अग्नि का स्पर्श और गौ पर चरण-प्रहार करता है तथा स्नान करके बिना पैर धोये घर के भीतर प्रवेश करता है, उसे गोवध का पाप लगता है। जो पति अपनी स्त्री का सतीत्व बेचकर जीविका चलाता है और संध्या नहीं करता, उसे गोहत्या लगती है। जो स्त्री अपने स्वामी तथा श्रीकृष्ण में भेद बुद्धि करती है तथा कठोर वचनों से पति के हृदय पर आघात पहुँचाती है, उसे निश्चय ही गोहत्या लगती है। जो गौओं के जाने के मार्ग को खोदकर तथा तड़ाग एवं उसके ऊपर की भूमि को जोतकर उसमें अनाज बोता है, वह गोहत्या के पाप का भागी होता है। राजकीय उपद्रव और देवी प्रकोप के अवसर पर जो स्वामी यत्न पूर्वक गौ की रक्षा नहीं करता, बल्कि उसे उलटे दुःख देता है, उस मूढ़ मानव को गोहत्या अवश्य लगती है। जो किसी प्राणी को, देवप्रतिमा के स्नान कराने के बाद वहाँ से बहते हुए जल को, देवता के नैवेद्य को तथा निर्माल्य पुष्प को लाँघता है, वह गोहत्या का भागी होता है। जो अतिथितियों के लिए सदा ‘नहीं’ ही किया करता, झूठ बोलता और दूसरों को ठगता तथा देवता और गुरु से द्वेष करता है, उसे गोहत्या का पाप लगता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अब आतिदेशि की गोहत्या बतलाते हैं।
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