ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 27-28
भगवान नारायण कहते हैं- नारद! धर्मराज के मुख से उपर्युक्त वर्णन सुनकर सावित्री की आँखों में आनन्द के आँसू छलक पड़े। उसका शरीर पुलकायमान हो गया। उसने पुनः धर्मराज से कहा। सावित्री बोली- धर्मराज! वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो! मैं किस विधि से प्रकृति से भी पर भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करूँ, यह बताइए। भगवन! मैं आपके द्वारा मनुष्यों के मनोहर शुभ कर्म का विपाक सुन चुकी। अब आप मुझे अशुभ कर्म- विपाक की व्याख्या सुनाने की कृपा करें। ब्रह्मन! सती सावित्री इस प्रकार कहकर फिर भक्ति से अत्यन्त नम्र हो वेदोक्त स्तुति का पाठ करके धर्मराज (यमराज) की स्तुति करने लगी। सावित्री ने कहा- प्राचीनकाल की बात है, महाभाग सूर्य ने पुष्कर में तपस्या के द्वारा धर्म (देवता) की आराधना की। तब धर्म के अंशभूत जिन्हें पुत्र रूप में प्राप्त किया, उन भगवान धर्मराज को मैं प्रणाम करती हूँ। जो सबके साक्षी हैं, जिनकी सम्पूर्ण भूतों में समता है, अतएव जिनका नाम शमन है, उन भगवान शमन को मैं प्रणाम करती हूँ। जो कर्मानुरूप काल के सहयोग से विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों का अन्त करते हैं, उन भगवान कृतान्त को मैं प्रणाम करती हूँ। जो पापीजनों को शुद्ध करने के निमित्त दण्डनीय के लिए ही हाथ में दण्ड धारण करते हैं तथा जो समस्त कर्मों के उपदेशक हैं, उन भगवान दण्डधर को मेरा प्रणाम है। जो विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों का तथा उनकी समूची आयु का निरन्तर परिगणन करते रहते हैं, जिनकी गति को रोक देना अत्यन्त कठिन है, उन भगवान काल को मैं प्रणाम करती हूँ। जो तपस्वी, वैष्णव, धर्मात्मा, संयमी, जितेन्द्रिय और जीवों के लिए कर्मफल देने को उद्यत हैं, उन भगवान यम को मैं प्रणाम करती हूँ। जो अपनी आत्मा में रमण करने वाले, सर्वज्ञ, पुण्यात्मा पुरुषों के मित्र तथा पापियों के लिए कष्टप्रद हैं, उन ‘पुण्यमित्र’ नाम से प्रसिद्ध भगवान धर्मराज को मैं प्रणाम करती हूँ। जिनका जन्म ब्रह्मा जी के वंश में हुआ है तथा जो ब्रह्मतेज से सदा प्रज्वलित रहते हैं एवं जिनके द्वारा परब्रह्म का सतत ध्यान होता रहता है, उन ब्रह्मवंशी भगवान धर्मराज को मेरा प्रणाम है।[1] मुने! इस प्रकार प्रार्थना करके सावित्री ने धर्मराज को प्रणाम किया। तब धर्मराज ने सावित्री को विष्णु-भजन तथा कर्म के विपाक का प्रसंग सुनाया। जो मनुष्य प्रातः उठकर निरन्तर इस ‘यमाष्टक’ का पाठ करता है, उसे यमराज से भय नहीं होता और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि महान पापी व्यक्ति भी भक्ति से सम्पन्न होकर निरन्तर इसका पाठ करता है तो यमराज अपने कायव्यूह से निश्चित ही उसकी शुद्धि कर देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तपसा धर्ममाराध्य पुष्करे भास्करः पुरा। धर्मांशं यं सुतं प्राप धर्मराजं नमाम्यहम्।।
समता सर्वभूतेषु यस्य सर्वस्य साक्षिणः। अतो यन्नाम शमन इति तं प्रणमाम्यहम्।।
येनान्तश्च कृतो विश्वे सर्वेषां जीविनां परम्। कर्मानुरूपकालेन तं कृतान्तं नमाम्यहम्।।
बिभर्ति दण्डं दण्डाय पापिनां शुद्धिहेतवे। नमामि तं दण्डधरं यः शास्ता सर्वकर्मणाम्।।
विश्वं यः कलयत्येव सर्वायुश्चापि सन्ततम्। अतीव दुर्निवार्यं च तं कालं प्रणमाम्यहम्।।
तपस्वी वैष्णवो धर्मी संयमी संजितेन्द्रियः। जीविनां कर्मफलदं तं यमं प्रणमाम्यहम्।।
स्वात्मारामश्च सर्वज्ञो मित्रं पुण्यकृतां भवेत्। पापिनां क्लेशदो यश्च पुण्यमित्रं नमाम्यहम्।।
यज्जन्म ब्रह्मणो वंशे ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा। यो ध्यायति परं ब्रह्म ब्रह्मवंशं नमाम्यहम्।।-(प्रकृतिखण्ड 28। 8-15)
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