ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 24-25
भगवान विष्णु की जो संकल्परहित अहेतु की सेवा की जाती है, उसे ‘कर्म-निर्मूलरूपा’ कहते हैं। ऐसी ही सेवा ‘हरि-भक्ति’ प्रदान करती है। कौन कर्म के फल का भोक्ता है और कौन निर्लिप्त- इसका उत्तर यह है। श्रुति का वचन है कि श्रीहरि का जो भक्त है, वह मनुष्य मुक्त हो जाता है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय- ये उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। साध्वि! श्रुति में मुक्ति भी दो प्रकार की बताई गई है। जो सर्वसम्मत है। एक को ‘निर्वाणप्रदा’ कहते हैं और दूसरी को ‘हरिभक्तिप्रदा’। मनुष्य इन दोनों के अधिकारी हैं। वैष्णव पुरुष हरिभक्तिस्वरूपा मुक्ति चाहते हैं और अन्य साधु-जन निर्वाणप्रदा मुक्ति की इच्छा करते हैं। कर्म का जो बीजरूप है, वही सदा फल प्रदान करने वाला है। कर्म कोई दूसरी वस्तु नहीं, भगवान श्रीकृष्ण का ही रूप है। ये भगवान प्रकृति से परे हैं। कर्म भी इन्हीं से होता है; क्योंकि वे उसके हेतुरूप हैं। जीव कर्म का फल भोगता है; आत्मा तो सदा निर्लिप्त ही है। देही आत्मा का प्रतिबिम्ब है, वही जीव है। देह तो सदा से नश्वर है। पृथ्वी, तेज, जल, वायु और आकाश- ये पाँच भूत उसके उपादान हैं। परमात्मा के सृष्टि-कार्य में ये सूत्ररूप हैं। कर्म करने वाला जीव देही है। वही भोक्ता और अन्तर्यामीरूप से भोजयिता भी है। सुख एवं दुःख के साक्षात स्वरूप वैभव का ही दूसरा नाम भोग है। निष्कृति मुक्ति को ही कहते हैं। सदसत्सम्बन्धी विवेक के आदि कारण का नाम ज्ञान है। इस ज्ञान के अनेक भेद हैं। घट-पटादि विषय तथा उनका भेद ज्ञान के भेद में कारण कहा जाता है। विवेचनमयी शक्ति को ‘बुद्धि’ कहते हैं। श्रुति में ज्ञानबीज नाम से इसकी प्रसिद्धि है। वायु के ही विभिन्न रूप प्राण हैं। इन्हीं के प्रभाव से प्राणियों के शरीर में शक्ति का संचार होता है। जो इन्द्रियों में प्रमुख, परमात्मा का अंश, संशयात्मक, कर्मों का प्रेरक, प्राणियों के लिए दुर्निवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धि का एक भेद है, उसे ‘मन’ कहा गया है। यह शरीरधारियों का अंग तथा सम्पूर्ण कर्मों का प्रेरक है। यही इन्द्रियों को विषयों में लगाकर दुःखी बनाने के कारण शत्रुरूप हो जाता है और सत्कार्य में लगाकर सुखी बनाने के कारण मित्ररूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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