ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 11-12
पूर्व समय की बात है, ‘क्षमा’ के साथ आप मुझे प्रेम करते दृष्टिगोचर हुए थे। उस समय क्षमा अपना वह शरीर त्यागकर पृथ्वी पर चली गयी। तदनन्तर उसका शरीर उत्तम गुण के रूप में परिणत हो गया था। फिर उसके शरीर का आपने विभाजन किया और उनमें से कुछ-कुछ अंश विष्णु को, वैष्णवों को, धार्मिक पुरुषों को, धर्म को, दुर्बलों को, तपस्वियों को, देवताओं और पण्डितों को दे दिया। प्रभो! इतनी सब बातें तो मैं सुना चुकी। आपके ऐसे-ऐसे बहुत-से गुण हैं। आप सदा ही उच्च सुन्दरी देवियों से प्रेम किया करते हैं। इस प्रकार रक्त कमल के समान नेत्रों वाली राधा ने भगवान श्रीकृष्ण से कहकर साध्वी गंगा से कुछ कहना चाहा। गंगा योग में परम प्रवीण थीं। योग के प्रभाव से राधा का मनोभाव उन्हें ज्ञात हो गया। अतः बीच सभा में ही अन्तर्धान होकर वे अपने जल में प्रविष्ट हो गयीं। तब सिद्धयोगिनी राधा ने योग द्वारा इस रहस्य को जानकर सर्वत्र विद्यमान उन जलस्वरूपिणी गंगा को अंजलि से उठाकर पीना आरम्भ कर दिया। ऐसी स्थिति में राधा का अभिप्राय पूर्ण योगसिद्धा गंगा से छिपा नही रह सका। अतः वे भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जाकर उनके चरण कमलों में लीन हो गयीं। तब राधा ने गोलोक, वैकुण्ठलोक तथा ब्रह्मलोक आदि सम्पूर्ण स्थानों में गंगा को खोजा; परंतु कहीं भी वह दिखायी नहीं दीं। उस समय सर्वत्र जल का नितान्त अभाव हो गया था। कीचड़ तक सूख गया था। जलचल जन्तुओं के मृत शरीर से ब्रह्माण्ड का कोई भी भाग ख़ाली नहीं रहा था। फिर तो ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, अनन्त, धर्म, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, मनुगण, मुनि-समाज, देवता, सिद्ध और तपस्वी–सभी गोलोक में आये। उस समय उनके कण्ठ, ओंठ और तालू सूख गये थे। प्रकृति से परे सर्वेश भगवान श्रीकृष्ण को सबने प्रणाम किया; क्योंकि ये श्रीकृष्ण सबके परम पूज्य हैं। वर देना इन सर्वोत्तम प्रभु का स्वाभाविक गुण है। इन्हें वर का प्रवर्तक ही माना जाता है। ये परमप्रभु सम्पूर्ण गोप और गोपियों के समाज में प्रमुख हैं। इन्हें निरीह, निराकार, निर्लिप्त, निराश्रय, निर्गुण, निरुत्साह, निर्विकार और निरंजन कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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