ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 8-9
नारद! यह स्तोत्र परम पवित्र है। जो पुरुष पृथ्वी का पूजन करके इसका पाठ करता है, उसे अनेक जन्मों तक भूपाल-सम्राट होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। इसे पढ़ने से मनुष्य पृथ्वी के दान से उत्पन्न पुण्य के अधिकारी बन जाते हैं। पृथ्वी-दान के अपहरण से, दूसरे के कुएँ को बिना उसकी आज्ञा लिये खोदने से, अम्बुवाची योग में पृथ्वी को खोदने से और दूसरे की भूमि का अपहरण करने से जो पाप होते हैं, उन पापों से इस स्तोत्र का पाठ करने पर मनुष्य छुटकारा पा जाता है, इसमें संशय नहीं है। मुने! पृथ्वी पर वीर्य त्यागने तथा दीपक रखने से जो पाप होता है, उससे भी पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करने से मुक्त हो जाता है। नारद जी बोले– भगवन! पृथ्वी का दान करने से जो पुण्य तथा उसे छीनने, दूसरे की भूमि का हरण करने, अम्बुवाची में पृथ्वी का उपयोग करने, भूमि पर वीर्य गिराने तथा जमीन पर दीपक रखने से जो पाप बनता है, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो! मेरे पूछने के अतिरिक्त अन्य भी जो पृथ्वीजन्य पाप हैं, उनको उनके प्रतीकार सहित बताने की कृपा करें। भगवान नारायण बोले– मुने! जो पुरुष भारतवर्ष में किसी संध्यापूत ब्राह्मण को एक बित्ता भी भूमि दान करता है, वह भगवान विष्णु के धाम में जाता है। फसलों से भरी-पूरी भूमि को ब्राह्मण के लिये अर्पण करने वाला सत्पुरुष उतने ही वर्षों तक भगवान विष्णु के धाम में विराजता है, जितने उस जमीन के रजःकण हों। जो गाँव, भूमि और धान्य ब्राह्मण को देता है, उसके पुण्य से दाता और प्रतिगृहीता– दोनों व्यक्ति सम्पूर्ण पापों से छूटकर वैकुण्ठधाम मे स्थान पाते हैं। जो साधु पुरुष भूमिदान लिये दाता को उत्साहित करता है, उसे अपने मित्र एवं गोत्र के साथ वैकुण्ठ में जाने का सौभाग्य प्राप्त होता है। अपनी अथवा दूसरे की दी हुई ब्राह्मण की भूमि हरण करने वाला व्यक्ति सूर्य एवं चन्द्रमा की स्थिति पर्यन्त ‘कालसूत्र’ नामक नरक में स्थान पाता है। इतना ही नहीं, इस पाप के प्रभाव से उसके पुत्र और पौत्र आदि के पास भी पृथ्वी नहीं ठहरती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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