ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 8-9
भगवान नारायण बोले– नारद! बहुत पहले की बात है। उस समय वाराहकल्प चल रहा था। ब्रह्मा के स्तुति करने पर भगवान श्रीहरि हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी को रसातल से निकाल ले आये। उसे जल पर इस प्रकार रख दिया, मानो तालाब में कमल का पत्ता हो। उसी पर ब्रह्मा ने सम्पूर्ण मनोहर विश्व की रचना की। पृथ्वी की अधिष्ठात्री एक परम सुन्दरी देवी के रूप में थी। उसे देखकर भगवान श्रीहरि के मन में प्रेम हो गया। भगवान वाराह की कान्ति ऐसी थी, मानो करोडों सूर्य हों। उन्होंने अपना रूप परम मनोहर बना लिया तथा रति के योग्य एक शैय्या तैयार की। फिर उस देवी के साथ एक दिव्य वर्ष तक वे एकान्त में रहे। इसके बाद उन्होंने उस सुन्दरी देवी का संग छोड़ दिया और खेल-ही-खेल में वे अपने पूर्व वाराह रूप से विराजमान हो गये। उन्होंने परम साध्वी देवी पृथ्वी का ध्यान और पूजन किया। धूप, दीप, नैवेद्य, सिन्दूर, चन्दन, वस्त्र, फूल और बलि आदि सामग्रियों से पूजा करके भगवान ने उससे कहा। श्री भगवान बोले– शुभे! तुम सबको आश्रय प्रदान करने वाली बनो। मुनि, मनु, देवता, सिद्ध और दानव आदि सबसे सुपूजित होकर तुम सुख पाओगी। अम्बुवाची[1] के अतिरिक्त दिन में गृहप्रवेश, गृहारम्भ, वापी एवं तड़ाग के निर्माण अथवा अन्य गृहकार्य के अवसर पर देवता आदि सभी लोग मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारी पूजा करेंगे। जो मूर्ख तुम्हारी पूजा नहीं करना चाहेंगे, उन्हें नरक में जाना पड़ेगा।उस समय पृथ्वी गर्भवती हो चुकी थी। उसी गर्भ से तेजस्वी मंगल नामक ग्रह की उत्पत्ति हुई। भगवान की आज्ञा के अनुसार उपस्थित सम्पूर्ण व्यक्ति पृथ्वी की उपासना करने लगे। कण्वशाखा में कहे हुए मन्त्रों को पढ़कर उन्होंने ध्यान किया और स्तुति की। मूलमन्त्र पढ़कर नैवेद्य अर्पण किया। यों त्रिलोकी भर में पृथ्वी की पूजा और स्तुति होने लगी। नारद जी ने कहा– भगवन! पृथ्वी का किस प्रकार ध्यान किया जाता है, इसकी पूजा का प्रकार क्या है और कौन मूलमन्त्र है? सम्पूर्ण पुराणों में छिपे हुए इस प्रसंग को सुनने के लिए मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है। अतः बताने की कृपा कीजिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सौरमान से आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण में पृथ्वी ऋतुमती रहती है। इतने समय का नाम अम्बुवाची है।
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