ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 3
तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण की बुद्धि से सबकी अधिष्ठात्री देवी ईश्वरी मूल प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ। सुतप्त कांचन की सी कान्ति वाली वे देवी अपनी प्रभा से करोड़ों सूर्यों का तिरस्कार कर रही थीं। उनका मुख मन्द-मन्द मुस्कराहट से प्रसन्न दिखायी देता था। नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को मानो छीन लेते थे। उनके श्रीअंगों पर लाल रंग की साड़ी शोभा पाती थी। वे रत्नमय आभरणों से विभूषित थीं। निद्रा, तृष्णा, क्षुधा, पिपासा, दया, श्रद्धा और क्षमा आदि जो देवियाँ हैं, उन सबकी तथा समस्त शक्तियों की वे ईश्वरी और अधिष्ठात्री देवी हैं। उनके सौ भुजाएँ हैं। वे दर्शन मात्र से भय उत्पन्न करती हैं। उन्हीं को दुर्गतिनाशिनी दुर्गा कहा गया है। वे परमात्मा श्रीकृष्ण की शक्तिरूपा तथा तीनों लोकों की परा जननी हैं। त्रिशूल, शक्ति, शांर्गधनुष, खडग, बाण, शंख, चक्र, गदा, पद्म, अक्षमाला, कमण्डलु, वज्र, अंकुश, पाश, भुशुण्डि, दण्ड, तोमर, नारायणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, पाशुपतास्त्र, पार्जन्यास्त्र, वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र तथा गान्धर्वास्त्र - इन सबको हाथों में धारण किये श्रीकृष्ण के सामने खड़ी हो, प्रकृति देवी ने प्रसन्नतापूर्वक उनका स्तवन किया।
विभो! मैं आपकी सानन्द वन्दना करती हूँ। असंख्य विश्व का आश्रयभूत महान विराट पुरुष जिनकी कला का अंशमात्र है, उन परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण को मैं आनन्द पूर्वक प्रणाम करती हूँ। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता, सम्पूर्ण वेद, मैं और सरस्वती- ये सब जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं तथा जो प्रकृति से परे हैं, उन आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करती हूँ। वेद तथा श्रेष्ठ विद्वान लक्षण बताते हुए आपकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं। भला जो निर्लक्ष्य हैं उनकी स्तुति कौन कर सकता है? ऐसे आप निरीह परमात्मा को मैं प्रणाम करती हूँ। ऐसा कहकर दुर्गा देवी श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनकी आज्ञा से श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। जो पूजाकाल में दुर्गा द्वारा किये गये परमात्मा श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह सर्वत्र विजयी और सुखी होता है। दुर्गा देवी उसका घर छोड़कर कभी नहीं जाती हैं। वह भवसागर में रहकर भी अपने सुयश से प्रकाशित होता रहता है और अन्त में श्रीहरि के परम धाम को जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |