ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 38-39
जो ब्राह्मण बैल जोतता है, वह कमलालया भगवती लक्ष्मी का प्रेमभाजन नहीं हो सकता। अतः उसके यहाँ से वे चल देती हैं। जो अशुद्धहृदय, क्रूर, हिंसक और निन्दक है, उस ब्राह्मण के हाथ का जल पीने में भगवती लक्ष्मी डरती हैं, अतः उसके घर से वे चल देती हैं। जो शूद्रों से यज्ञ कराता है, कायर व्यक्तियों का अन्न खाता है, निष्प्रयोजन तृण तोड़ता है, नखों से पृथ्वी को कुरेदता रहता है; जो निराशावादी है, सूर्योदय के समय भोजन करता है, दिन में सोता और मैथुन करता है और जो सदाचारहीन है, ऐसे मूर्खों के घर से मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं। जो अल्पज्ञानी व्यक्ति भीगे पैर अथवा नंगा होकर सोता है तथा निरन्तर बेसिर-पैर की बातें बकता रहता है, उसके घर से साध्वी लक्ष्मी चली जाती हैं। जो सिर पर तैल लगाकर उसी से दूसरे के अंग को स्पर्श करता है अर्थात अपने सिर का तैल दूसरे को लगाता है तथा अपनी गोद में बाजा लेकर उसे बजाता है, उसके घर से रुष्ट होकर लक्ष्मी चली जाती हैं। जो द्विज व्रत, उपवास, संध्या और विष्णुभक्ति से हीन है, उस अपवित्र पुरुष के घर से मेरी प्रिया लक्ष्मी चली जाती हैं। जो ब्राह्मणों की निन्दा तथा उनके द्वेष करता है, जीवों की सदा हिंसा करता है और दयारहित है, उसके घर से जगज्जननी लक्ष्मी चली जाती हैं। जिस स्थान पर भगवान श्रीहरि की चर्चा होती है और उनके गुणों का कीर्तन होता है, वहीं पर सम्पूर्ण मंगलों को भी मंगल प्रदान करने वाली भगवती लक्ष्मी निवास करती हैं। पितामह! जहाँ भगवान श्रीकृष्ण का तथा उनके भक्तों का यश गाया जाता है, वहीं उनकी प्राणप्रिया भगवती लक्ष्मी सदा विराजती हैं। जहाँ शंखध्वनि होती है तथा शंख, शालग्राम, तुलसी– इनका निवास रहता है एवं उनकी सेवा, वन्दना और ध्यान होता है, वहाँ लक्ष्मी सदा विद्यमान रहती हैं। जहाँ शिवलिंग की पूजा और पवित्र कीर्तन होता है, वहाँ कमलालया लक्ष्मी निवास करती हैं। जहाँ ब्राह्मणों की सेवा होती है, उन्हें उत्तम पदार्थ भोजन कराये जाते हैं तथा सम्पूर्ण देवताओं का अर्चन होता है, वहाँ पद्ममुखी साध्वी लक्ष्मी विराजती हैं। नारद! रमापति भगवान श्रीहरि ने सम्पूर्ण देवताओं से यों कहकर श्रीलक्ष्मी से कहा– ‘देवि! तुम अपनी कला से क्षीरसमुद्र के यहाँ जाकर जन्म धारण करना स्वीकार कर लो।’ इस प्रकार लक्ष्मी से कहने के पश्चात् उन जगत्प्रभु ने पुनः ब्रह्मा से कहा– ‘पद्मज! तुम समुद्र का मन्थन करो, उससे लक्ष्मी प्रकट होंगी। तब उन्हें देवताओं को सौंप देना।’ मुने! यों अपना प्रवचन समाप्त करके कमलाकान्त भगवान श्रीहरि अन्तःपुर में चले गये। देवता उसी क्षण क्षीरसागर की ओर चल पड़े। वहाँ सभी देवता और दानव एकत्रित हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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