ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 35-37
उसका स्पर्श करके चलने वाली वायु का संयोग पाकर तीर्थों का समूह पवित्र हो जाता है। उसकी चरणरज लगते ही पृथ्वी पवित्र हो जाती है। श्रीहरि को भोग न लगाया हुआ अन्न मांस के समान अभक्ष्य है। शिव-लिंग के लिए अर्पण किया हुआ अन्न तथा शूद्रयाजी, चिकित्सक, देवल, कन्याविक्रयी और योनि-जीवी का अन्न, ठंडा, बासी, सबके भोजन करने पर बचा हुआ अन्न, शूद्रापति एवं वृषवाही, अदीक्षित, शवदाही, अगम्यागामी, मित्रद्रोही, विश्वासघाती, कृतघ्न तथा झूठी गवाही देने वाले ब्राह्मणों का अन्न अत्यन्त दूषित समझा जाता है; परंतु ये सब भी भगवान विष्णु को अर्पण करके भोजन करने से शुद्ध हो जाते हैं। यदि चाण्डाल भी भगवान विष्णु की उपासना करता है तो वह करोड़ों वंशजों का उद्धार कर सकता है। श्रीहरि की भक्ति से विमुख मानव स्वयं अपनी भी रक्षा नहीं कर सकता। यदि अज्ञान में भी भगवान विष्णु को समर्पित नैवेद्य ग्रहण कर लिया जाए तो वह पुरुष अपने सात जन्मों के उपार्जित पापों से मुक्त हो जाता है। जान-बूझकर भक्तिपूर्वक जो श्रीहरि का प्रसाद ग्रहण करता है, उसके तो अनेक जन्मों के पाप निश्चित रूप से भस्म हो जाते हैं। इन्द्र! तुमने जो अभिमान में आकर भगवान के प्रसाद रूप पारिजात के पुष्प को हाथी के मस्तक पर रख दिया, इस अपराध के फलस्वरूप लक्ष्मी तुम्हें छोड़कर भगवान श्रीहरि के समीप चली जाए। मैं भगवान नारायण का भक्त हूँ। मुझे शिव तथा ब्रह्मा से भी किंचित भी भय नहीं है। काल, मृत्यु और जरा से भी मैं नहीं डरता, फिर दूसरों की तो गिनती ही क्या है? तुम्हारे पिता प्रजापति कश्यप भी मेरा क्या करेंगे? देवराज! तुम्हारे गुरु बृहस्पति भी मुझ निःशंक पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। देखो, यह पुष्प जिसके मस्तक पर है, उसी की पूजा श्रेष्ठ मानी जाती है। शिव के पुत्र का मस्तक कट जाने पर उसके पुनरुज्जीवन के लिए यही मस्तक[1]जोड़ा जाएगा। मुनिवर दुर्वासा के ये वचन सुनकर देवराज इन्द्र ने उनके चरण पकड़ लिये। भय के कारण उनके मन में घबराहट छा गयी। शोकातुर होकर उच्च स्वर से रोते हुए वे मुनि से कहने लगे। इन्द्र ने कहा – प्रभो! आपने मुझ मतवाले को यह शाप देकर बहुत ही उचित किया है। यदि आपने मेरी सम्पत्ति हर ली तो अब आप मुझे कुछ ज्ञानोपदेश करने की कृपा कीजिये। ऐश्वर्य तो विपत्तियों का बीज है। उससे ज्ञान ढक जाता है। इसी से इसको मुक्तिमार्ग की अर्गला कहा जाता है। इसके कारण हरि-भक्ति में पद-पद पर बाधा उपस्थित हुआ करती है। सम्पत्ति जन्म, मृत्यु, जरा, रोग, शोक और दु:ख के बीज का उत्तम अंकुर है। धनरूपी रतौंधी से अन्धा हुआ मानव मुक्ति के मार्ग को नहीं देख सकता।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हाथी का सिर
- ↑ ऐश्वर्यं विपदां बीजं प्रच्छन्नज्ञानकारणम्। मुक्तिमार्गार्गलं दार्ढ्यं हरिभक्तिव्यवायकम् ।।
जन्ममृत्युजरारोगशोकदु:खांकुरं परम। सम्पत्तितिमिरान्धं च मुक्तिमार्गं न पश्यति ।।-(प्रकृतिखण्ड 36। 48-49)
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