ब्रह्मलोक परजंत के सबै भोग निस्सार।
जानत, पै प्रिय-प्रीति हित करत सदा सिंगार॥89॥
जो रुचि देखै राम की, बिलग होइ ततकाल।
नरक परै, दुख सहै, पै सुखी रहै सब काल॥90॥
पच्यौ करै नरकाग्रि, पै पल-पल बाढ़ै प्रेम।
प्रीतम के सुख सौं सुखी, यहै प्रेम कौ नेम॥91॥
प्रेम-अनल जे जरि मरे, अपनौ आपौ खोय।
ते ही जीये जगत में, शेष रहे मृत होय॥92॥
जिहिं नित चित चातक कियौ, नेम प्रेम कौ लीन्हि।
निरखे नित घनस्याम छबि, अन्य सबै तज दीन्हि॥93॥
बिपति सहै, प्यासौ मरै, जरै बिरह की आग।
दूसरि दिसि चितवै नहीं, सो प्रेमी बड़भाग॥94॥
स्याम-सुधाकर में लग्यौ जाकौ चित्त-चकोर।
सो प्रेमी दृढ़निश्चयी, तकै न दूसरि ओर॥95॥
मोह मिट्यौ संसार कौ, बिनस्यौ सब अग्यान।
पै प्रिय-ममता बढ़त नित, यहै प्रेम-पहिचान॥96॥
‘अहं’ देह कौ सब दह्यौ, रह्यौ न बिषय-ममत्व।
पै प्रिय-सुख-लगि तजत नहिं बपु, यह प्रेम ममत्व॥97॥
दोउ दृढ़ आलिंगन करत, करत सदा सुख-भोग।
एकरूप नित ह्वै रहैं, तदपि न अँग-संयोग॥98॥
सदा रहत संजोग ध्रुव, तदपि बियोग लखात।
जोग, बियोग-सरूप धरि, नित्य जरावत गात॥99॥
पै राखत यह जरनि जिय, प्रिय सम हिय सौं लाय।
नहिं कुछ यहि सम सांतिकर, सीतल, सुखद सुभाय॥100॥