ब्रज सुधि नैकुहूँ नहि जाइ।
जदपि मथुरापुरी मनोहर, विरद जादौराइ।।
जौ कोऊ कहि कान्ह टेरत, चौकि चितवत धाइ।
ग्वालिनी अवलोकि पाछै, रहत सीस नवाइ।।
देखि सुरभी बच्छ हित जल रहत लोचन छाइ।
सृंग बेनु विषान सुनि कै, उठत हेरी गाइ।।
देखि पत्र पलास के अलि, रहत उर लपटाइ।
आनि छवि पै पान कै प्रभु, पिवत जल मुसुकाइ।।
मोर के चँदवा धरनि तै, स्याम लेत उठाइ।
छाक छवि कै कोस भोजन, हँसत दधि परसाइ।।
कुंज केलि समान नाही, सुरपुरी सुखदाइ।
बीसरयौ नहि ‘सूर’ कबहूँ, नंद जसुदा माइ।।4158।।