ब्रज मैं हरि होरी मचाई -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

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राग होरी




ब्रज मैं हरि होरी मचाई।
इततै आवति कुँवरि राधिका उततै कुँवर कन्हाई।।
खेलत फाग परस्पर हिलि मिलि यह सुख बरनि न जाई।
सुघर घर बजत बधाई।
बाजत ताल मृदंग झाँझ डफ मजीरा सहनाई।
उड़ति अबीर कुमकुमा केसरि रहत सदा ब्रज ठाई।।
मनौ मधवा झरि लाई।
राधा जू सैन दियौ सखियनि कौ झुंड झुंड उठि धाई।।
लपटि झपटि गई स्याम सुंदर कौ बरबस पकरि लै आई।
लाल जू कौ नाच नचाई।
लीन्हौ छोरि पिताँबर मुरली सिर सौं चुनरी ओढ़ाई।
बेदी भाल नैन बिच काजर नक बेसरि पहिराई।।
मनौ नई नारि बनाई।
फगुवा दिए बिनु जान न पैहौ करिहौ कौन उपाई।
लैहौ काढ़ि कसरि सब दिन की तुम चितचोर चवाई।।
बहुत दिन दधि मेरी खाई।
सुसुकत हौ मुख गोरि मोरि तुम कहाँ गई चतुराई।
कहाँ गए वै सखा तुम्हारे कहाँ जसोमति माई।।
तुम्हैं किन लेति छुडाई।
रास बिलास करत बृंदावन ब्रजबनिता जदुराई।
राधे स्याम जुगल जोरी पर 'सूरदास' बलि जाई।।
प्रीति उर रहति समाई।। 126 ।।

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