ब्रज मैं वै उनहार नहीं -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


ब्रज मैं वै उनहार नहीं ।
ब्रज सब गोप रहे, हरि बिनही, स्वाद न दूध दही ।।
ज्यौ द्रुम डार पवन के परसे, दस दिसि परत बही ।
बासर बिरह भरी अति व्याकुल, कबहुँ न नीद लही ।।
दिन दिन देह दुखी अति हरि बिनु, इहि तन बहुत सही ।
'सूरदास' हम तब न मुई, अब ये दुख सहन रही ।। 3219 ।।

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