ब्रज जुवती सब कहतिं परस्पर -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग कल्यान


ब्रज जुवती सब कहतिं परस्पर, बन तैं स्याम बने ब्रज आवत।
ऐसी छबि मैं कबहुं न पाई, सखी सखी सौं प्रगट दिखावत।।
मोर मुकुट सिर, जलज-माल उर कटि-तट पीतांबर छबि पावत।
नव जलंधर पर इंद्र चाप मनु, दामिनी-छबि, बलाक धन धावत।।
जिहिं जो अंग अवलोकन न कीन्हौ, सो तन मन तहँई बिरमावत।
सूरदास-प्रभु मुरली अधर धरे, आवत राग कल्यान बजावत।।1369।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः