ब्रज कौं देखि सखी हरि आवत।
कटि तट सुभग पोतपट राजत, अदभुत वेष बनावत।।
कुंडल तिलक चिकुर रज मंडित, मुरली मधुर बजावत।
हंसि मुसुकानि बंक अवलोकनि, मन्मथ कोटि लजावत।।
पीरी धौरी धूमरि गौरी, लै-लै नाउँ बुलावत।
कबहूँ गान करत अपनी रुचि, करतल तार बजावत।।
कुसुमित दाम मधुप-कुल गुंजत, संग सखा मिलि गावत।
कबहुँक नृत्य करत कौतुहल, सप्तक भेद दिखावत।।
मंद-मंद गति चलत मनोहर, जुवतिनि रस उपजावत।
आंनद कंद जसोदा-नंदन, सूरदास मन भावत।।1376।।