ब्रज के लोग फिरत बितताने।
गैयनि लै बन ग्वाल गए, ते, धाए आवत ब्रजहिं पराने।।
कोउ चितबत नभ-तन चक्रित ह्वै, कोउ गिरि परत धरनि अकुलाने।
कोउ लै रहत ओट वृच्छनि की, अंध-धुंध दिसि-बिदिसि भुलाने।।
कोउ पहुँचे जैसै-तैसैं गृह, कोउ ढूँढ़त गृह नहिं पहिचाने।
सूरदास गोबर्धन-पूजा कीन्हे कौ फल लेहु बिहाने।।860।।