ब्रज की लीला देखि 4 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री
बाल-वत्‍स-हरन की दूसरी लीला


दीपक बहुत प्रकास, तरनि सम क्यौं कहि आवै?
मैं ब्रह्मा इक लोक कौ, ज्यौं गूलर-फल जीव।
प्रभु तुम्हरे इक रोम-प्रति, कोटि ब्रह्मा सीव।
मिथ्या है यह देह कहौ क्यों हरि बिसराया।
मिथ्या यह संसार और मिथ्या कह माया।
तुम जाने बिन जीव सब,अतपति प्रलय समाहि।
सरन मोहिं प्रभु राखिऐ चरन-कमल की छाहिं।
करहु मोहिं ब्रज रेनु देहु बृदाबन बासा।
माँगौं यहै प्रसाद और मेरै नहिं आसा।
जोई भावै सोइ करहु तुम, लता सिला द्रुम, गेहू।
ग्वाल गाइ को भृत करौ, मानि सत्य व्रत एहु।
जो दरसन नर नाग अमर सुरपतिहुं न पायो।
खोजत जुग गए बीति अंत मोहूँ न लखायौ।
इहिं ब्रज यह रस नित्य है, मैं अब समुझ्यौ आइ।
बृंदाबन रज ह्वै रहौं, ब्रह्म लोक न सुहाइ।
मांगत बारंबार सेष ग्वालनि कौ पाऊँ।
अब मेरै निज ध्यान यह रहौं जूठ नित खाइ।
और बिधाता कीजियै, मैं नहिं छाँड़ौ पाइ।
तब बोले प्रभु आपु बचन मेरौ अब मानो।
और काहि बिधि करौं, तु‍महिं तै कौन सयानौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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