ब्रज-बालक सब जाइ तुरतहीं, महर-महरि कै पाइ परे।
ऐसौ पूत जन्यौ जग तुमहीं धन्य कोखि जिहि स्याम धरे।
गाइ लिवाइ गए बृंदाबन, चरत चलीं जमुना-तट हेरि।
असुर एक खग-रूप धरि रह्यौ, बैठ्यौ तीर, बाइ मुख घेरि।
चोंच एक पुहुमी करि राखी एक रह्यौ तो गगन लगाइ।
हम बरजत पहिलेहिं हरि धायौ, बदन चीरि पल माँहिं गिराइ।
सुनत नंद जसुमति चित चक्रित गोकुल के नर-नारि।
सूरदास प्रभु मन हरि लीन्हौ, तब जननी भरि लए अँकवारि।।430।।