ब्रज जुवती स्यामहि उर लावति।
बारंबार निरखि कोमल तनु कर जोरति, बिधि कौ जु मनावति।
कैसें बचे आगम तरु कैं तर मुख चूमति, यह कहि पछितावति।
उरहन लै आवतिं जिहिं कारन, सौ सुख फल पूरन करि पावति।
सुनौ महरि, इनकौं तुम बाँधति, भुज गहि बुधन चिह्न दिखावहिं।
सूरदास प्रभु अति रति नागर, गोपी हरषि हृदय झपटावति।।390।।