उत्तम सफल एकादसि आई 2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
वरुण से नंद को छुड़ाना


ब्रज-जन लोग सबै उठि धाए। जमुना कैं तट कहूँ न पाए।।
बन-बन ढूंढ़त गाउँ मझारै। नंद-नंद कहि लोग पुकारैं।।
खेलत तैं हरि हलधर आए। रोवत मातु देखि दुख पाए।।
कत रोवति है जसुदा मैया। पूछत जननि सौ दोउ भैया।।
कहत स्याम जनि रोवहु माता। अवहीं आवत है नंद ताता।।
मोसौं कहि गए अबहीं आवन। रोवै मति मैं जात बुलावन।।
सबके अंतरजामी हैं हरि। लै गयौ बाँधि वरुन नंदहि धरि।।
यह कारज मैं वाकौं दीन्हौ। वाके दूतनि नंद न चीन्हौ।।
वरुन-लोक तबहीं प्रभु आए। सुनत वरुन आतुर ह्वै धाए।।
आनंद कियौ देखि हरि कौ मुख। कोटि जनम के गए सबै दुख।।
धन्य भाग मेरे बड़ आजू। चरन-कमल-दरसन सुभ काजू।।
पाटंबर पांवड़े डसाए। महलनि बंदनवार बंधाए।।
रत्न-खचित सिंहासन धारयौ। तापर कृष्नहिं लै बैठारयौ।।
अपनैं कर प्रभु-चरन पखारे। जे कमला-उर तैं नहिं टारे।।
जे पद परसि सुरसरी आई। तिहूँ लोक है विदित बड़ाई।।
ते पद वरुन हाथ लै धोए। जनम-जनम के पातक खोए।।
कृपासिंधु अब सरन तुम्हारैं। इहिं कारन अपराध बिचारे।।
चले आपु हरि नंदहि देखत। बैठे नंद राज-बर-वेषन।।
नृप रानी सब आगैं ठाढ़ीं। मुख-मख तै सब अस्तुति काढ़ीं।।
पाइनि परी कृष्न कैं रानी। धन्य जनम सबहिनि कही बानी।।
धन्य नंद, धनि धन्य‍ जसोदा। धनि-धनि तुम्हैं खिलावति गोदा।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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