ब्रज-घर-घर अति होत कुलाहल -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


ब्रज-घर-घर अति होत कुलाहल।
जहँ-तहँ ग्वाल फिरत उमंगे सब, अति आनंद उमाहल।।
मिलत परस्पर अंकम दै-दै, सकटानि भोजन साजत।
दधि लवनी मधु माट धरत लै, राम स्याम संग राजत।।
मंदिर तैं लै धरत अजिर पर, षटरस की ज्यौ‍नार।
डालनि भरि अरु कलस नए भरि, जोरक हैं परकार।।
सहस सकट मिष्टान्न अन्न बहु, नंद महर घरही के।
सूर चले लै घर-घर तैं, संग सुवन नंद जी के ।।826।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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